गुरुवार, 26 मार्च 2009

नैनो न सजाना नयनन में…

nano 1

ये लखटकिया गाड़ी असल में दूसरी गाड़ियों से भी महन्गी पड़ सकती है, इसलिए सावधान! ये जिस कथित आम आदमी के लिए बनाई गई है, कम-स-कम उसकी पहुँच से तो बाहर है। जहाँ महन्गी से महन्गी गाड़ियों को बुक कराने की कीमत पाँच से पंद्रह हज़ार है, वहाँ इसके लिए देने पड़ेंगे पूरे ९५,०००!!! सिन्गूर का किस्सा तो सबको मलूम है पर उसकी भरपाई तो पहले ही दाम को एक लाख से एक पैंतीस करके की जा चुकी है। अगर आप गाड़ी मिलने के समय तक का ब्याज लगाएँ तो तक्रीबन पौने दो लाख की कीमत पड़ेगी नैनो के सबसे कम दाम वाले मॉडल की।


nano2 तो अभी तो ये गाड़ी उन्हीं के लिए है जो इसे शौकिया या विह्वलता वश खरीदना चाहें, यानी अपने कथित उद्देश्य से बिलकुल विपरीत। तो अगर आप इस साल कम दाम में गाड़ी खरीदना चाहते हैं तो पुरानी मारुति, सैन्ट्रो या ज़ेन इत्यादी में से कोई ले लीजिए।


मैं गाड़ियों के मामले में तो विशेषज्ञ नहीं हूँ, पर पैसा समझ-बूझ से खर्च करने के मामले में ज़रूर बनना चाहती हूँ और गहन-चिन्तन सोते-जागते जारी रहता है! इसलिए फ़िलहाल चाहे मेरा कोई नयी साइकिल तक लेने का इरादा नहीं है, पर नैनो पर मुबाहिसों के चलते मैंने भी बहती गन्गा में हाथ धो लिए। मुफ़्त की सलाह बाँटना भारतीयों का प्रिय शुगल है, ऐसा अविनाश वाचस्पति जी ने एक रोचक काव्य-टिप्पणी में हाल ही में कहा था, सो लीजिए मैंने भी बाँट दी!


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रविवार, 22 मार्च 2009

मज़ेदार, ज्ञानवर्धक, बढ़िया, रोचक व अनुपम

चिट्ठाजगत में प्रतिदिन अनेकों प्रविष्टियाँ ऐसे विशेषणों से सराही जाती हैं (और चाहिए भी) । ये हिन्दी चिट्ठाजगत की उप्लब्धी है और चिट्ठाकारों की प्रखरता का प्रमाण । पर उसके बाद क्या? हाँ, ब्लॉगवानी सबसे अधिक पसन्द की गई प्रविष्टियों की सूची दिखाता है ताकी दूसरे पाठक भी उन्हें पढ़ सकें । लेकिन अन्ततः सब लिखा-पढ़ा अलग-अलग आर्काइवों की गलियों में कहीं खो जाता है ।


हाल ही में चिट्ठाजगत के आर्काइवों का भ्रमण करते हुए सारथी पर एक तर्क पढ़ा कि जब हम अख़बार की भान्ति कुछ पढ़ते हैं तो हमारी स्मरण शक्ती कम होती चली जाती है । कहीं हम ब्लॉग भी भूल जाने के लिए तो नहीं पढ़ रहे हैं ?


मानती हूँ कि हर पसन्दीदा पोस्ट को हृदयंगम कर लेना न तो नैसर्गिक है और न ही लाज़मी । ये भी सच है कि कभी-कभी कोई लेख, कहानी या कविता हमें प्रभावित अथवा प्रेरित कर जाती है; फिर भले ही पढ़ा हुआ याद रहे न रहे, परन्तु उससे प्राप्त हुई प्रेरणा और प्रॊत्साहन मस्तिष्क में कहीं न कहीं घर कर ही जाते हैं । मेरी मान्यता तो यह भी है कि ज़िन्दगी का घड़ा पलों से ही भरता है यानी अगर कोई लिखित रचना पल भर का बौद्धिक आनन्द भी दे जाए तो वह एहसास ही पाठक व लेखक दोनों का पारितोषक है, अभीप्सित है । और किसी चर्चा के चलते किसी लेख में कही गई बात याद आ जाए, तो  उचित आर्काइव में जाकर उद्धृत किया जा सकता है, या फिर याद्दाश्त से उल्लेख ।


ये सब जानने-समझने के बाद भी एक परिस्थिती छूट जाती है । दसियों रचनाएँ पढ़ते-पढ़ते कोई एक ऐसी मिल जाती है जिसे खो देने का डर सा लगता है । पढ़ने और टिपियाने के बाद भी मन नहीं भरता । मेरे लिए बिलकुल वैसा है जैसे कोई किताब पुस्तकालय से लेकर पढ़ ली जाए, जितनी बार इजाज़त हो उतनी बार दुबारा उधार ले ली जाए, और उसके बाद भी उसे खरीदने को मन ललचाये ।  इसलिए क्योंकि ऐसा लगता है कि वो किताब फिर से पढ़नी चाहिए – उसे जितनी बार पढ़ा जाएगा कुछ नया सीखने को मिलेगा, नई प्रेरणा मिलेगी । ऐसा ही आभास कुछ गिनी-चुनी ब्लॉग-प्रविष्टियों को पढ़कर मुझे हुआ । क्या किसी और को भी होता है?


ख़ैर, मैंने इसका उपाय ढूढने का प्रयत्न किया है । ब्लॉगर के “My Links” विजेट के माध्यम से उन ख़ास रचनाओं को अपने ब्लॉग पर सुरक्षित रखा है, ताकि वे हर वक्त सामने ही दिखती रहें और उन्हें कभी-भी दुबारा पढ़ा जा सके । साथ ही साथ स्वयं को एवम् आगंतुकों को आदेश भी दिया गया है कि “इन्हें भी पढ़ें!” (वैसे बार-बार पढ़ने का मौका मिले-न-मिले, मन को तसल्ली तो है कि जो लेख फिर से पढ़ने चाहिए, वो मैंने सम्भाल कर, ठीक सामने ही रख लिए हैं!)


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मंगलवार, 10 मार्च 2009

कितने वर्ष जीना चाहोगे? - 2

"मैम!?" वो लड़का चिल्ला-सा पड़ा. "मैंने तो ऐसा नहीं कहा! मैं अपने घर के बड़ों से बेहद प्यार करता हूँ. मैं चाहता हूँ कि भगवान उन्हें बहुत-बहुत लम्बी उम्र दे! आप ने ऐसा सोचा भी कैसे, मैम?" नवी कक्षा में पहुँचने से बहुत पहले ही लड़के रोना-धोना अपनी बेज्ज़ती समझते हैं - रोने को लड़कियों का काम कहते हैं पर वो रुआन्सू-सा हो गया था. इससे पहले की अध्यापिका कुछ कहती या करती, मेरी कॉमिक वाली दोस्त अपनी कुर्सी से उठ खड़ी हुई और बोली, "मैम, ये बिलकुल ठीक कह रहा है. आपने उसकी बात का बिलकुल गलत अर्थ निकाल लिया. वो तो केवल इतना कहना चाहता होगा की बड़े लोगों की ज़िन्दगी कितनी बोरिंग-सी लगती है. हमारे लिए तो अच्छा है क्योंकि वे लोग सब कुछ हमारे लिए ही करते हैं लेकिन उनके खुद के लिए कितना बोरिंग होगा. पूरे समय बस बच्चों, घर और ऑफिस के काम करने की ज़िम्मेदारी और कोई आराम नहीं!"
तभी एक और छात्र ने कहा, "मैम, मेरे हिसाब से तो साठ बहुत ज्यादा है. मेरे लिए तो चालीस की उम्र ही काफी है. और फिर इतने साल जीकर करना भी क्या है?"
इसके बाद तो सब एक साथ बोलने लगे -
"पचास, मैम!"
"नहीं, नहीं, पैंतालिस!"
"मैम, चालीस!"
"साठ!"
"मैम, पैंसठ बहुत है!"
"बासठ!"
"मैम उनचास!"
"पचपन!"
सब नियंत्रण से बाहर हो चुके थे और अध्यापिका शान्ति रखने के लिए कह ही रही थी, कि एक और जवाब आया -
"पैंतीस!"

मेरे पाँव के नीचे से तो जैसे ज़मीन ही खिसक गयी. क्योंकि ये उत्तर देने वाली कोई और नहीं, मेरी बगल में बैठी मेरी सबसे प्रिय दोस्त थी. मैं उसे एक टक घूर रही थी. आखिर वो ऐसा कैसे कह सकती थी कि वह सिर्फ पैंतीस साल तक जीना चाहती है? नहीं, यह ज़रूर मज़ाक कर रही है, मैंने सोचा.
"क्या कहा तुमने?" अध्यापिका ने पूछा. "पैंतीस? केवल पैंतीस?"
"जी मैम," मेरी दोस्त ने जवाब दिया.
अध्यापिका ने एक गहरी सांस ली और बोली, "क्या तुम्हें पता है कि मेरी अपनी उम्र छत्तीस वर्ष की है?"
"मैम, लगती नहीं!" सबसे पीछे बैठे एक लड़के की आवाज़ आई.
"तुम चुप बैठो! किसीने तुम्हारी राय पूछी?" और अध्यापिका ने पलटकर मेरी दोस्त कि ओर देखा.
उसने कहा, "मैम, वैसे तो मुझे ये बात एक ज्योतिषी ने बताई थी कि मैं केवल पैंतीस साल ही जीऊँगी लेकिन मैं स्वयं भी इतनी आयु के ख़याल से खुश हूँ. और फिर इतिहास भी तो देखिए. हमारी इतिहास की पुस्तक छोटी उम्र में ही चल बसने वालों से भरी पड़ी हैं और उन्ही को हम आज याद करते हैं. महान कवि कीट्स से लेकर भगत सिंह तक! यानी उन्ही का जीवन सफल था - ज्यादा लम्बा जीने से आपका जीवन ज्यादा सार्थक हो जाएगा, ऐसा तो कोई ज़रूरी नहीं!"
मैं मन ही मन मुस्कुराई. मुझे अब विशवास हो गया था कि मेरी दोस्त केवल मज़ा लेने के लिए अध्यापिका के सामने उल्टे-सीधे तर्क झाड़ रही थी. पर मैं थोडी हैरान भी थी. एक तो उसका चेहरा बहुत ही गंभीर था और वो नाटक करती लग नहीं रही थी और दूसरा, ऐसी टाइमपास वाली हरकतें मैं तो कभी-कबार कर भी लेती थी, पर वह तो कभी नहीं करती थी.
मैं ये सब अभी सोच ही रही थी कि अध्यापिका जी ने पूरी कक्षा को समझाना शुरू कर दिया था. वे आइंस्टाइन, गाँधी, शेक्स्पीअर व डार्विन की जीवनियों से उदाहरण भी दे रही थी. वे कह रही थी कि केवल ज़िम्मेदारी के डर से छोटी उम्र की कामना करना बिलकुल बेवकूफी है. ऐसा बहुत कुछ कहा और अंत में यह कि अपनी जान-पहचान के किसी भी बुजुर्ग-से-बुजुर्ग व्यक्ति से पूछ लेना, कोई भी मरना नहीं चाहता है.
जब वे अपनी बात ख़त्म कर अगले प्रश्न की ओर बढ़ने लगीं, तो मैंने झट-से अपना हाथ खड़ा कर दिया. "हाँ बोलो!" अध्यापिका ने मेरी ओर देख कर कहा.
"मैम, बाकी सबका तो पता नहीं, पर मैं तेईस जनवरी दो हज़ार बयासी को मरना चाहती हूँ!" मैंने फटाक से कहा.
"हैं?!" अध्यापिका के मुंह से बस इतना ही निकला.
मैंने आगे बोला, "मैम, उस दिन मेरा सौवां जन्मदिन होगा. मैं अच्छे से चॉकलेट केक खाकर और सारे तोहफे देखकर ख़ुशी-ख़ुशी उस दिन मर जाऊँगी."
पूरी कक्षा में सबकी ठहाकेदार हंसी गूँज उठी. सबसे पीछे बैठे उस लड़के ने "हैप्पी बर्डे टू यू, दादी अम्मा" गाना शुरू कर दिया और कई बच्चे उसके साथ गाने लग पड़े. अध्यापिका जी उन्हें शांत करवा ही रही थी कि अगले पीरिअड की घंटी बज गयी. उन्होंने मेज़ से अपना बैग उठाया लेकिन सीधा बाहर जाने कि बजाए मेरी ओर आने लगी. मैं घबरा गई, "आज तो खूब सुनना पड़ेगा. बस प्रिंसिपल के पास न ले जाएँ."
लेकिन उन्होंने केवल हल्का सा मुस्कुरा कर एक बार मेरा सर थप-थपाया और पलट कर बाहर चली गयीं. मैंने उस समय तो राहत कि सांस ले ली पर उसके एक-दो हफ्ते बाद तक सब ने मुझे कई रंगीन नामों से बुलाया - ग्रैनी, दादी अम्मा, बूढी घोड़ी, रयूमैटिक्स, भटकती आत्मा, वगैरा वगैरा. खैर, मैं भी ईंट का जवाब पत्थर से देती थी.

आज, मुझे उन अध्यापिका जी का न तो नाम ही याद है और न चेहरा. मैं उन्हें कभी नहीं बता पाऊँगी कि उनके उस प्रश्न ने कितनी गहरी छाप छोड़ी. वो प्रश्न और उससे जुड़े हुए कई और प्रश्न मुझे आज भी सताते हैं.


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कितने वर्ष जीना चाहोगे? - 1

अरविन्द जी ने "लॉन्ग लिव" का आशीर्वाद दिया तो अचानक स्कूल के दिनों से एक किस्सा याद आ गया. बात उस ज़माने की है (हा हा) जब मैं नवी कक्षा में थी. एक पीरिअड खाली था जिसे हम "अरेंजमेंट" पीरिअड कहते थे और एक जीवविज्ञान की अध्यापिका कक्षा में शांति बनाए रखने के लिए आयीं. वे छात्रों से हल्की-फुल्की बातचीत करने लगी पर मेरा ध्यान डेस्क के नीचे रखे चिप्स खाने में (जो की आगे बैठे लड़के ने सिर्फ दो मिनट के लिए दिए थे और उसके बाद मुझे आगे पास करने थे) और आर्चीज़ कॉमिक को जल्दी-जल्दी पढने में था (जो मेरे पीछे बैठी दोस्त की थी और सिर्फ उस पीरिअड की उधारी थी). जल्दी-जल्दी इसलिए भी क्योंकि मेरी बगल में बैठी दोस्त भी साथ-साथ पढ़ रही थी और वो मुझसे थोडी तेज़ रफ़्तार से पढ़ती थी और पेज पलटने की जल्दी में थी. तात्पर्य यह कि मैं अत्यधिक व्यस्त थी और मेरे पास किसी अध्यापिका की बेकार की गप्पें सुनने का समय तो बिलकुल भी नहीं था.

मैं इसी प्रकार अपना काम ध्यानपूर्वक और पूरी निष्ठा के साथ कर रही थी जब न चाहते हुए भी एक आवाज़ कान में पड़ ही गयी, "येस यू ! द गर्ल विद स्पेक्स !" मैंने सर ऊपर उठाकर देखा. मेरा पारा चढ़ चुका था. चश्मे वाली लड़की - आखिर ये कोनसा तरीका हुआ किसी को संबोधित करने का? मैंने अध्यापिका को आँखों में आँखें डाल कर देखा. खड़े होने की ज़हमत भी नहीं उठाई. "तुम क्या कर रही हो?" अध्यापिका ने पूछा. "पढ़ रही हूँ," मैंने सीधा जवाब दिया और जानबूझकर, अंत में "मैम" नहीं लगाया. अध्यापिका का माथा ठनका. मेरे बगल में बैठी दोस्त मुझे फिक्रमंद आँखों से घूर रही थी और पाँव मार कर खड़े होने का इशारा भी कर रही थी पर मैं टस से मस नहीं हुई. बाकी पूरी कक्षा मजेदार तमाशे के ताक में ऐसी चुप हुई के मानो सबने सांस भी लेना बंद कर दिया हो.
उनकी इच्छा पर ठंडा पानी फेंकते हुए अध्यापिका ने शांत स्वर में कहा, "वो तो मैंने भी देखा. मैं यह पूछ रही थी कि क्या पढ़ रही हो. खैर, कुछ अहम बातों के बारे में सबका मत जानने के लिए मैं कक्षा के समक्ष एक प्रश्नावली रख रही हूँ; अगर तुम चाहो, तो थोडी देर पढने की बजाय इसमें सबके साथ हिस्सा लो." और मेरे जवाब का इंतज़ार किए बगैर उन्होंने कक्षा को बताना शुरू कर दिया कि वे किस प्रकार की प्रश्नावली की बात कर रही थी और सब छात्र-छात्राओं को क्या करना था. मैंने अड़ियलपन में एक बार फिर कॉमिक की ओर ध्यान केन्द्रित किया पर मेरी दोस्त अब अध्यापिका की बात सुन रही थी. मन में उसे "डरपोक दगाबाज़" कहा और अकेले ही पढने लगी. अब तो पूरी किताब मेरे कब्जे में थी, उसे मेज़ के बीचों-बीच रखने के भी ज़रुरत नहीं थी. फिर भी मैं पहले की तरह नहीं पढ़ पा रही थी - लाख कोशिश करने पर भी मेरा ध्यान बार-बार अध्यापिका के सवाल और बच्चों के जवाब सुनने की ओर आकर्षित हो रहा था.
इसी कश-म-कश के चलते एक सवाल कानों से होकर मस्तिष्क तक पहुँच ही गया (जबकि सब कुछ अनसुना करने का मेरा प्रयत्न पूरे जोरों पर था). यह था वो सवाल जिसने मेरी आर्चीज़ कॉमिक पढने की घोर तपस्या भंग कर दी, "अगर तुम चुन सको, तो कितने वर्ष जीना चाहोगे?" (अंग्रेजी में कुछ ऐसा था- "इफ यू हैड द चॉएस, हाओ लॉन्ग वुड यू लाइक टु लिव फॉर?")
आखिर मैंने हार मान ही ली. किताब बंद कर पीछे पकड़ा दी. दायीं कोहनी को मेज़ पर और ठुड्डी को हाथ पर टिकाया, और सबके जवाब सुनने के लिए चौकन्नी होकर बैठ गयी. तब एक लड़के ने कहा, "मैम, साठ."
"यानी अब से साठ वर्ष और? कुल मिला कर तेहत्तर-पचहत्तर?" अध्यापिका जी ने पूछा.
"नहीं, नहीं, मैम! साठ वर्ष की उम्र काफी है," उस लड़के ने जवाब दिया.
अध्यापिका के चेहरे पर आश्चर्य और परेशानी दोनों साफ़ झलक रहे थे. मैं भी हैरान थी. "ये उल्लू बोल क्या रहा है?" - मैंने सोचा. एक या दो को छोड़कर, अपनी कक्षा के लड़कों की मानसिक क्षमता के बारे में मेरी कुछ ख़ास अच्छी राय तो वैसे भी नहीं थी. पर यह तो नई नीचाइयों को छु रहा था.
जब और किसी ने कोई जवाब नहीं दिया तो अध्यापिका ने उसी लड़के से थोड़े हलके स्वर में प्यार से पूछा, "बेटा, क्या तुम्हारे दादा-दादी व नाना-नानी नहीं हैं?" लड़के ने झट जवाब दिया, "बिलकुल हैं, मैम. इसीलिए तो कह रहा हूँ. उनका जीना भी क्या जीना है! मैं कभी वैसा बुड्ढा नहीं बनना चाहता."
कक्षा में एकदम से शोर-सा फ़ैल गया जैसा कि तीस-पैंतीस बच्चों के एकसाथ फुसफुसाकर बातचीत करने से पैदा होता है. अब सब आपस में उसकी बात पर चर्चा कर रहे थे. किन्तु अध्यापिका ने सबको शांत करवाते हुए, काफी ऊंचे स्वर में उस लड़के से कहा, "क्या तुम्हे बिलकुल शर्म नहीं आती? अपने घर के बुजुर्गों के बारे में ऐसा कह रह हो? वे तुम्हे कितना प्यार करते होंगे और तुम्हे उनका जीवित रहना इतना खलता है?"


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इस ब्लॉग के बारे में...

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