मज़ेदार, ज्ञानवर्धक, बढ़िया, रोचक व अनुपम
चिट्ठाजगत में प्रतिदिन अनेकों प्रविष्टियाँ ऐसे विशेषणों से सराही जाती हैं (और चाहिए भी) । ये हिन्दी चिट्ठाजगत की उप्लब्धी है और चिट्ठाकारों की प्रखरता का प्रमाण । पर उसके बाद क्या? हाँ, ब्लॉगवानी सबसे अधिक पसन्द की गई प्रविष्टियों की सूची दिखाता है ताकी दूसरे पाठक भी उन्हें पढ़ सकें । लेकिन अन्ततः सब लिखा-पढ़ा अलग-अलग आर्काइवों की गलियों में कहीं खो जाता है ।
हाल ही में चिट्ठाजगत के आर्काइवों का भ्रमण करते हुए सारथी पर एक तर्क पढ़ा कि जब हम अख़बार की भान्ति कुछ पढ़ते हैं तो हमारी स्मरण शक्ती कम होती चली जाती है । कहीं हम ब्लॉग भी भूल जाने के लिए तो नहीं पढ़ रहे हैं ?
मानती हूँ कि हर पसन्दीदा पोस्ट को हृदयंगम कर लेना न तो नैसर्गिक है और न ही लाज़मी । ये भी सच है कि कभी-कभी कोई लेख, कहानी या कविता हमें प्रभावित अथवा प्रेरित कर जाती है; फिर भले ही पढ़ा हुआ याद रहे न रहे, परन्तु उससे प्राप्त हुई प्रेरणा और प्रॊत्साहन मस्तिष्क में कहीं न कहीं घर कर ही जाते हैं । मेरी मान्यता तो यह भी है कि ज़िन्दगी का घड़ा पलों से ही भरता है यानी अगर कोई लिखित रचना पल भर का बौद्धिक आनन्द भी दे जाए तो वह एहसास ही पाठक व लेखक दोनों का पारितोषक है, अभीप्सित है । और किसी चर्चा के चलते किसी लेख में कही गई बात याद आ जाए, तो उचित आर्काइव में जाकर उद्धृत किया जा सकता है, या फिर याद्दाश्त से उल्लेख ।
ये सब जानने-समझने के बाद भी एक परिस्थिती छूट जाती है । दसियों रचनाएँ पढ़ते-पढ़ते कोई एक ऐसी मिल जाती है जिसे खो देने का डर सा लगता है । पढ़ने और टिपियाने के बाद भी मन नहीं भरता । मेरे लिए बिलकुल वैसा है जैसे कोई किताब पुस्तकालय से लेकर पढ़ ली जाए, जितनी बार इजाज़त हो उतनी बार दुबारा उधार ले ली जाए, और उसके बाद भी उसे खरीदने को मन ललचाये । इसलिए क्योंकि ऐसा लगता है कि वो किताब फिर से पढ़नी चाहिए – उसे जितनी बार पढ़ा जाएगा कुछ नया सीखने को मिलेगा, नई प्रेरणा मिलेगी । ऐसा ही आभास कुछ गिनी-चुनी ब्लॉग-प्रविष्टियों को पढ़कर मुझे हुआ । क्या किसी और को भी होता है?
ख़ैर, मैंने इसका उपाय ढूढने का प्रयत्न किया है । ब्लॉगर के “My Links” विजेट के माध्यम से उन ख़ास रचनाओं को अपने ब्लॉग पर सुरक्षित रखा है, ताकि वे हर वक्त सामने ही दिखती रहें और उन्हें कभी-भी दुबारा पढ़ा जा सके । साथ ही साथ स्वयं को एवम् आगंतुकों को आदेश भी दिया गया है कि “इन्हें भी पढ़ें!” (वैसे बार-बार पढ़ने का मौका मिले-न-मिले, मन को तसल्ली तो है कि जो लेख फिर से पढ़ने चाहिए, वो मैंने सम्भाल कर, ठीक सामने ही रख लिए हैं!)
13 comments:
उचित उपाय किया है।
मैंने पसन्द के लेखों, ब्लॉगरों की लिंक्स की एक सूची बनाकर कम्प्यूटर में सम्भाल रखी है।
घुघूती बासूती
संभाले मन में भी
सिर्फ संगणक में नहीं
मन का संभाला
वक्त बेवक्त आएगा काम
राय देने के
जो कि भारतीयों का
प्रिय शगल है
कि गल है
इसी गल में छिपा
पागलपन है
गल पाई के फन हुए
हर्षित सब जन हुए।
आश्चर्यजनक संयोग है कि पिछले कुछ दिनों से मेरे मन में भी ऐसे ही स्फुट विचार - स्फुलिंग उमड़ घुमड़ जा रहे थे -आपने उन्हें अपने विशिष्ट मौलिक सृजनात्मक शैली में प्रस्तुत करके बाजी मार ली !
हिन्दी के बहु समादृत कवि "अज्ञेय " ने भी अनुभव की गहनता के ही परिप्रेक्ष्य में क्षणवाद की वकालत की थी -मगर पल पल की अनुभूतियों को सहज ही समेट लेने के लिए जिस तरह की बौद्धिक संवेदनशीलता और परिष्कृत अभिरुचि जरूरी है वह बहुत कम ही लोगों में शायद होती है .और जिनमे होती है वे कभी कभी तो आक्रांत होकर यह भी कह पड़ते हैं -" सबसे भले वे मूढ़ जिनहि न व्यापत जगत गति " ( दोज सिंपलटनस आर फार बेटर हू आर नोट इन्फ्लूयेंस्द बाई वोरडली अफेयर्स " -क्योंकि रीमा आपकी तरह की संवेदनशीलता शायद कवी की नजरों में पीडा जनक भी बन जाती है !
बहरहाल पुस्तक और अंतरजाल के जिस अंतर -वैषम्य को अपने रेखांकित किया है वह भी एक मुद्दा रहा है पर क्या अंतरजाल और पी सी के बढ़ते वर्चस्व को देखते हुए कोई भी मुद्रित साहित्य के भविष्य के प्रति आश्वस्त हो सकता है ? तो हमें इस तकनीकी पर ही वे उपाय खोजने और सहेजने होंगें जिनसे हम अपनी पसंद को अक्षुण रख सके और जब भी इच्छा हो सिंहावलोकन कर सकें ! जैसे अपने लिंक्स को सहेजने के टूल की जाकारी से साझा किया !
आपकी यह पोस्ट बहुत कुछ सोचने को प्रोत्साहित करती है -साधुवाद !
( ....और क्या टिप्पणियों को भी सहेजने की बात भी कभी मन में उठती है ? )
आपने सही सोचा है...ब्लॉग की गलियों में घुमते घुमते कई बार मैं भी भ्रमित हो जाता हूँ..क्या पढ़े,क्या याद रखे...कहाँ टिप्पणी दे...आपका सुझाव अच्छा है...
रिमाजी ने अरविंद मिश्रजी से बाजी मार ली:) बधाई।
सही सुझाव है ... मैने भी यही किया है।
आविनाश जि, आपकी तो तिप्पणी भी मज़ेदार, ज्ञानवर्धक, बढ़िया, रोचक व अनुपम है !
अरविंद जी, आपकी इस टिप्पणी को पढ्के तो वाकई टिप्पणियों को भी सहेजने की बात मन में उठती है ! इतने सारे कठिन शब्द एक साथ?
खैर, मुद्रित साहित्य के भविष्य के प्रति मैं आश्वस्त हूँ क्योंकि पढ़्ना तो एक आदत है; लत भी कह सकते हैं । हम जितना अधिक पढ़ते हैं, उतना और अधिक पढ़ने की इच्छा होती है, फिर चाहे माध्यम कोई भी हो । पर आपकी बात बिलकुल ठीक है कि नई तक्नीक के लिए सहेजने के नए तरीके तो ढूढने ही पड़ेंगे और उनकी आदत भी डालनी पड़ेगी, जैसे पुस्तकों के लिए घरों मे शेल्फ़ या अलमारियां होती ही हैं, उनके लिए चिन्तन नहीं करना पड़ता !
आपका आलेख काफी अच्छा लगा.
आजकल हर चीज को सहेज कर रखने के लिये साफ्टवेयर उपलब्ध है. मैं उनका काफी प्रयोग करता हूँ. आप भी करके देखिए.
वाक्य के अंत में एक "स्पेस" छोड कर पूर्णविराम लगाने की आदत छोड दीजिये. ऐसा करने पर कई बार विरामचिन्ह अगली पंक्ति में चला जाता है.
सारथी पर अपके चिट्ठे की कडी "जहां सारथी मौजूद है!!" में जोड दी गई है. जरा जांच कर देख लें
सस्नेह -- शास्त्री
आपकी सराहना व सुझाव के लिए आभार।
माफ करें, अभी कुछ कह नहीं पा रहा हूं इतनी खूबसूरत प्रविष्टि पर। एक संतोष है, अरविन्द जी ने सब कुछ वांछित कह दिया है । भविष्य में सजग रहूं, यही सोच रहा हूं । धन्यवाद ।
यह प्रयास अधूरा ही रह गया क्या?
एक टिप्पणी भेजें