मंगलवार, 10 मार्च 2009

कितने वर्ष जीना चाहोगे? - 1

अरविन्द जी ने "लॉन्ग लिव" का आशीर्वाद दिया तो अचानक स्कूल के दिनों से एक किस्सा याद आ गया. बात उस ज़माने की है (हा हा) जब मैं नवी कक्षा में थी. एक पीरिअड खाली था जिसे हम "अरेंजमेंट" पीरिअड कहते थे और एक जीवविज्ञान की अध्यापिका कक्षा में शांति बनाए रखने के लिए आयीं. वे छात्रों से हल्की-फुल्की बातचीत करने लगी पर मेरा ध्यान डेस्क के नीचे रखे चिप्स खाने में (जो की आगे बैठे लड़के ने सिर्फ दो मिनट के लिए दिए थे और उसके बाद मुझे आगे पास करने थे) और आर्चीज़ कॉमिक को जल्दी-जल्दी पढने में था (जो मेरे पीछे बैठी दोस्त की थी और सिर्फ उस पीरिअड की उधारी थी). जल्दी-जल्दी इसलिए भी क्योंकि मेरी बगल में बैठी दोस्त भी साथ-साथ पढ़ रही थी और वो मुझसे थोडी तेज़ रफ़्तार से पढ़ती थी और पेज पलटने की जल्दी में थी. तात्पर्य यह कि मैं अत्यधिक व्यस्त थी और मेरे पास किसी अध्यापिका की बेकार की गप्पें सुनने का समय तो बिलकुल भी नहीं था.

मैं इसी प्रकार अपना काम ध्यानपूर्वक और पूरी निष्ठा के साथ कर रही थी जब न चाहते हुए भी एक आवाज़ कान में पड़ ही गयी, "येस यू ! द गर्ल विद स्पेक्स !" मैंने सर ऊपर उठाकर देखा. मेरा पारा चढ़ चुका था. चश्मे वाली लड़की - आखिर ये कोनसा तरीका हुआ किसी को संबोधित करने का? मैंने अध्यापिका को आँखों में आँखें डाल कर देखा. खड़े होने की ज़हमत भी नहीं उठाई. "तुम क्या कर रही हो?" अध्यापिका ने पूछा. "पढ़ रही हूँ," मैंने सीधा जवाब दिया और जानबूझकर, अंत में "मैम" नहीं लगाया. अध्यापिका का माथा ठनका. मेरे बगल में बैठी दोस्त मुझे फिक्रमंद आँखों से घूर रही थी और पाँव मार कर खड़े होने का इशारा भी कर रही थी पर मैं टस से मस नहीं हुई. बाकी पूरी कक्षा मजेदार तमाशे के ताक में ऐसी चुप हुई के मानो सबने सांस भी लेना बंद कर दिया हो.
उनकी इच्छा पर ठंडा पानी फेंकते हुए अध्यापिका ने शांत स्वर में कहा, "वो तो मैंने भी देखा. मैं यह पूछ रही थी कि क्या पढ़ रही हो. खैर, कुछ अहम बातों के बारे में सबका मत जानने के लिए मैं कक्षा के समक्ष एक प्रश्नावली रख रही हूँ; अगर तुम चाहो, तो थोडी देर पढने की बजाय इसमें सबके साथ हिस्सा लो." और मेरे जवाब का इंतज़ार किए बगैर उन्होंने कक्षा को बताना शुरू कर दिया कि वे किस प्रकार की प्रश्नावली की बात कर रही थी और सब छात्र-छात्राओं को क्या करना था. मैंने अड़ियलपन में एक बार फिर कॉमिक की ओर ध्यान केन्द्रित किया पर मेरी दोस्त अब अध्यापिका की बात सुन रही थी. मन में उसे "डरपोक दगाबाज़" कहा और अकेले ही पढने लगी. अब तो पूरी किताब मेरे कब्जे में थी, उसे मेज़ के बीचों-बीच रखने के भी ज़रुरत नहीं थी. फिर भी मैं पहले की तरह नहीं पढ़ पा रही थी - लाख कोशिश करने पर भी मेरा ध्यान बार-बार अध्यापिका के सवाल और बच्चों के जवाब सुनने की ओर आकर्षित हो रहा था.
इसी कश-म-कश के चलते एक सवाल कानों से होकर मस्तिष्क तक पहुँच ही गया (जबकि सब कुछ अनसुना करने का मेरा प्रयत्न पूरे जोरों पर था). यह था वो सवाल जिसने मेरी आर्चीज़ कॉमिक पढने की घोर तपस्या भंग कर दी, "अगर तुम चुन सको, तो कितने वर्ष जीना चाहोगे?" (अंग्रेजी में कुछ ऐसा था- "इफ यू हैड द चॉएस, हाओ लॉन्ग वुड यू लाइक टु लिव फॉर?")
आखिर मैंने हार मान ही ली. किताब बंद कर पीछे पकड़ा दी. दायीं कोहनी को मेज़ पर और ठुड्डी को हाथ पर टिकाया, और सबके जवाब सुनने के लिए चौकन्नी होकर बैठ गयी. तब एक लड़के ने कहा, "मैम, साठ."
"यानी अब से साठ वर्ष और? कुल मिला कर तेहत्तर-पचहत्तर?" अध्यापिका जी ने पूछा.
"नहीं, नहीं, मैम! साठ वर्ष की उम्र काफी है," उस लड़के ने जवाब दिया.
अध्यापिका के चेहरे पर आश्चर्य और परेशानी दोनों साफ़ झलक रहे थे. मैं भी हैरान थी. "ये उल्लू बोल क्या रहा है?" - मैंने सोचा. एक या दो को छोड़कर, अपनी कक्षा के लड़कों की मानसिक क्षमता के बारे में मेरी कुछ ख़ास अच्छी राय तो वैसे भी नहीं थी. पर यह तो नई नीचाइयों को छु रहा था.
जब और किसी ने कोई जवाब नहीं दिया तो अध्यापिका ने उसी लड़के से थोड़े हलके स्वर में प्यार से पूछा, "बेटा, क्या तुम्हारे दादा-दादी व नाना-नानी नहीं हैं?" लड़के ने झट जवाब दिया, "बिलकुल हैं, मैम. इसीलिए तो कह रहा हूँ. उनका जीना भी क्या जीना है! मैं कभी वैसा बुड्ढा नहीं बनना चाहता."
कक्षा में एकदम से शोर-सा फ़ैल गया जैसा कि तीस-पैंतीस बच्चों के एकसाथ फुसफुसाकर बातचीत करने से पैदा होता है. अब सब आपस में उसकी बात पर चर्चा कर रहे थे. किन्तु अध्यापिका ने सबको शांत करवाते हुए, काफी ऊंचे स्वर में उस लड़के से कहा, "क्या तुम्हे बिलकुल शर्म नहीं आती? अपने घर के बुजुर्गों के बारे में ऐसा कह रह हो? वे तुम्हे कितना प्यार करते होंगे और तुम्हे उनका जीवित रहना इतना खलता है?"

6 comments:

निर्मला कपिला 10/3/09 15:14  

reemaji vo ladka kuchhbhi kahe magar mai chahtee hoon ki aapki umar 100 saal se bhi upar ho holi mubarak

Reema 10/3/09 15:40  

शुभकामनाओं के लिए धन्यावाद निर्मला जी. इसका अगला भाग भी अवश्य पढिएगा.

Unknown 10/3/09 16:48  

समाज में बुजर्गों का जिस तरह से तिस्कार होता है । उसके अनुसार लड़के ने सही ही कहा । आपका ये स्मरण पहले तो कुछ खास न लगा पर आखिर तक आते आते आपने बेहद गंभीर बात उठायी । साथ ही एक बात की विस्तार दें तो और भी बातें आयेगी सामने। शुभ होली

Udan Tashtari 10/3/09 18:01  

लड़के ने जैसा माहौल पाया होगा अपने आसपास, उस हिसाब से अपनी मानसिकता बनाई है.

आप तो शतक पूरा किए बिना मानियेगा मत-हमारी शुभकामनाऐं हैं.

होली की बहुत बधाई एवं मुबारक़बाद !!!

Shastri JC Philip 10/3/09 21:15  

जब भी अन्य लोगों के अनुभव पढता हूँ तो लगता है कि आपस में शायद 60% से 80% अनुभव एक जैसे होते है!!

सस्नेह -- शास्त्री

-- हर वैचारिक क्राति की नीव है लेखन, विचारों का आदानप्रदान, एवं सोचने के लिये प्रोत्साहन. हिन्दीजगत में एक सकारात्मक वैचारिक क्राति की जरूरत है.

महज 10 साल में हिन्दी चिट्ठे यह कार्य कर सकते हैं. अत: नियमित रूप से लिखते रहें, एवं टिपिया कर साथियों को प्रोत्साहित करते रहें. (सारथी: http://www.Sarathi.info)

बेनामी,  22/3/09 06:32  

मैं उतने साल जीना चाहूंगा जितने साल मेरे हांथ, पैर चलते रहें, मस्तिक्ष स्वस्थ रहे, और जीवन समाज की सेवा में रहे। जिस दिन इनमें से एक भी कम हो उस दिन यह समाप्त हो जाय चाहे उस समय मेरी कुछ भि उम्र हो।

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