सोमवार, 6 अप्रैल 2009

चीनी हिन्दी

आज के अख़बार में पढ़ा कि चीन में अब हर साल दो सौ विद्यार्थी हिन्दी भाषा में ग्रैजुएट हो जाते हैं। और उससे बडी बात यह कि उनके इस हिन्दी के ज्ञान के कारण उन्हें धड़ा-धड़ नौकरियाँ भी मिल जाती हैं। यहाँ तक की कम्पनियों को जितने लोग चाहिए, उतने नहीं मिल पाते, इसलिए हिन्दी जानने वाले मनपसन्द कम्पनी चुन सकते हैं। चीन के एक विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ा रहे एक अध्यापक ने कहा कि उनके छात्र तो हिन्दी सीखने के अपने फ़ैसले पर बहुत खुश हैं और वे भारत की संस्कृति में भी खूब रुचि रखते हैं।chini hindi

China’s leading Bharatnatyam dancer, Jin Shan Shan, with her daughter Jessie in Beijing

        

परन्तु इन अध्यापक को इस बात का बेहद अफ़सोस है कि भारत सरकार व भारतवासी हिन्दी को अन्तर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में प्रस्तुत नहीं करते बल्कि सदैव स्थानीय अथवा राष्ट्रीय भाषा ही मानते हैं। उनका कहना यह है कि अगर थोडा प्रोत्साहन मिले तो सभी देशों में जब छात्रों को एक विदेशी भाषा सीखने का विकल्प मिलता है तो वे दूसरी भाषाओं की तरह हिन्दी को भी सीखना चाहेंगे।

मैंने भी मेल्बर्न शहर में कई छात्रों कॊ वहाँ के विश्वविद्यालयों में हिन्दी बोलते सुना। वे किसी भी हिन्दी भाषी भारतीय को देखकर बहुत खुश हो जाते और चाहते की आप उनसे केवल हिन्दी में ही बात करें। लगता है कि अब हिन्दी की किसमत विदेश में चमकेगी और फिर जब विदेशी भारत आकर हिन्दी पढ़ाएँगे तो शायद भारतीयों की रुचि जागेगी!


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गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

बूढ़ी घोड़ी, लाल लगाम!*

ये हिन्दी भाषा के सबसे अधिक दुःखदायी मुहावरों

Happy Old Age 2 

में

से एक है। जब भारतीय संस्कृति वृद्धों के प्रति इतनी संवेदनशील व आदरभाव वाली है तो हमारी भाषा में ऐसा कथन कहाँ से घुस गया?    शायद अजित वडनेरकर जी इस विषय में कुछ रौशनी डाल सकें शब्दों के सफ़र पर। क्या हमें बुज़ुर्गों का आदर केवल तभी करना चाहिए जब वे ऊट-पटांग सामाजिक सीमाओं में बंधे रहें, वरना परिहास?


कपड़ा वही, दाम भी वही, परन्तु चुना जाएगा बेरंग या गन्दा-भूरा। पसन्द अपनी अपनी होती है लेकिन सिर्फ़ इस डर से कि कहीं कोई “बूढ़ी *** ” न कह दे? मेरी समझ से तो बाहर है।

ख़ैर, अगर बात बस कपड़ों वगैरा की होती तो इतना बड़ा मसला न होता, पर बात तो है मानसिकता की। हमेशा ऐसा सुनने को क्यों मिलता है (सम्पूर्ण भारत में, पर खासकर छोटे शहरों-कस्बों में) कि “अरे! इन बुड्ढा-बूढी की ज़रूरतें ही कितनी होंगी? इन्हें तो अब सन्तोश रखना चाहिए!” अर्थात अपना मन मार के जीना सीखना चाहिए!


क्या ऐसा लिखा है वेदों, शास्त्रों या ग्रन्थों में?


कमाल की बात यह है कि पश्चिम में जो उम्र छिपाने और सदैव जवान दिखने की पागलपन की हद तक होड़ है, वो मुझे तो इसी मानसिकता का दूसरा पहलू लगती है। क्योंकि जब तक जवान दिखेंगे, तभी तक जीवन के मज़े लूटने की इजाज़त मिलेगी। बस वहाँ वृद्धाश्रम हैं और यहाँ अपने ही घर में रूखा-सूखा जीवन। सबका आदर पाने के लिए स्वयं को एक अच्छा वृद्ध साबित कीजिए; समझ या आचरण से नहीं बल्कि अपने पहनावे आदी से!! यानी बुज़ुर्गों के लिए चैन तो कहीं भी नहीं दुनिया में – कहीं सर्जरी इत्यादी के ज़रिए ज़रूरत से अधिक जवान दिखने की कोशिश तो कहीं भद्दे कपड़े पहन और हाथ में औपचारिक मनके गिन अत्यधिक वृद्ध दिखने की चेष्टा।


अब एक पहलू और भी देखिए। किस्से ये भी ले लीजिए। एक वृद्ध पुरुष बस से उतरने के लिए ड्राइवर से अनुरोध करते हैं कि बेटा, अगले स्टॉप पर ज़रा आराम से रोक कर चलना। चालक हामी तो भर देता है पर जब स्टॉप आने पर वे वृद्धपुरुष ज़रा धीमि गती से बस की सीढ़ियाँ उतरते हैं तो चालक से रहा नहीं जाता है ऊँची आवाज़ और करारे शब्दों में अपनी राय रसीद किए बग़ैर, “बाबाजी, अब घर पर ही बैठा कीजिए! इस उम्र में ज़्यादा घूमने-फिरने की ज़रूरत नहीं है!” क्यों, दो-तीन पल अधिक रुकना पड़ गया, इसलिए? कुछ ऐसा ही सरकारी दफ़्तरों में भी होता है। नियम है कि वरिष्ठ नागरिकों को प्राथमिकता दी जाए तो एक ऐसे नागरिक कतार में सबसे आगे चले जाते हैं। अब सरकारी नौकर की टिप्पणी सुनिए, “अन्कल जी, क्या आपके कोई बच्चे नहीं हैं जो आप चले आये यहाँ पर?” तो काम करवाने से पहले ये बताएँ कि आपके कितने बच्चे हैं और कहीं उन्होंने आपको घर से निकाल बाहर तो नहीं किया है। अगर  वृद्ध सक्षम हैं और घर के अन्दर-बाहर के कार्यों में योगदान देना चाहते हैं, तो इजाज़त नहीं, जब तक ये साबित न कर दें कि उनका “कोई सहारा नहीं है”।


इस बात से सरोकार करना पड़ेगा कि ऊपरोक्त परेशानियाँ किसी को भी झेलनी पड़ सकती हैं, फिर भले ही आप संयोजित परिवार में क्यों न रहते हों। इसलिए वृद्धों की बात आते ही केवल संयोजित परिवार व्यवस्था नामक हल सुझाकर मुद्दे को रफ़ा-दफ़ा नहीं किया जा सकता।


मेरी दुआ तो हमेशा ये ही होती है कि सब अपनी वृद्धावस्था का आनन्द लेने के बाद ही जीवन से अलविदा लें। समाज में वृद्ध-विमर्ष की आवश्यकता है। क्योंकि आर्थिक या पारिवारिक सुरक्षा पर्याप्त नहीं हो सकते किसी के जीने के लिए। हाँ, आज हालात ऐसे हैं कि इतना भी नहीं है वृद्धों के लिए। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम चिन्तन का विषय ही यहीं तक सीमित कर दें। सामाजिक, बौद्धिक और अन्य कई पहलुओं पर भी ध्यान देना पड़ेगा।



* इस पोस्ट को लिखने की प्रेरणा मिली चिट्ठाजगत की इन दो प्रविष्टियों से -
बूढे लोगों का क्या काम समाज में!

वृद्धावस्था और आधुनिक श्रवण कुमार


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इस ब्लॉग के बारे में...

इस ब्लॉग के ज़रिये मैं अपनी हिंदी में सुधार लाना चाहती हूँ. आपसे अनुरोध है की अगर आपको मेरी भाषा, वर्तनी, व्याकरण, अभिव्यक्ति इत्यादि में कोई भी त्रुटि नज़र आए, तो मुझे अवश्य बताएँ और मेरा मार्गदर्शन करें. यहाँ पधारने का धन्यवाद!

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