बूढ़ी घोड़ी, लाल लगाम!*
ये हिन्दी भाषा के सबसे अधिक दुःखदायी मुहावरों
में
से एक है। जब भारतीय संस्कृति वृद्धों के प्रति इतनी संवेदनशील व आदरभाव वाली है तो हमारी भाषा में ऐसा कथन कहाँ से घुस गया? शायद अजित वडनेरकर जी इस विषय में कुछ रौशनी डाल सकें शब्दों के सफ़र पर। क्या हमें बुज़ुर्गों का आदर केवल तभी करना चाहिए जब वे ऊट-पटांग सामाजिक सीमाओं में बंधे रहें, वरना परिहास?
कपड़ा वही, दाम भी वही, परन्तु चुना जाएगा बेरंग या गन्दा-भूरा। पसन्द अपनी अपनी होती है लेकिन सिर्फ़ इस डर से कि कहीं कोई “बूढ़ी *** ” न कह दे? मेरी समझ से तो बाहर है।
ख़ैर, अगर बात बस कपड़ों वगैरा की होती तो इतना बड़ा मसला न होता, पर बात तो है मानसिकता की। हमेशा ऐसा सुनने को क्यों मिलता है (सम्पूर्ण भारत में, पर खासकर छोटे शहरों-कस्बों में) कि “अरे! इन बुड्ढा-बूढी की ज़रूरतें ही कितनी होंगी? इन्हें तो अब सन्तोश रखना चाहिए!” अर्थात अपना मन मार के जीना सीखना चाहिए!
क्या ऐसा लिखा है वेदों, शास्त्रों या ग्रन्थों में?
कमाल की बात यह है कि पश्चिम में जो उम्र छिपाने और सदैव जवान दिखने की पागलपन की हद तक होड़ है, वो मुझे तो इसी मानसिकता का दूसरा पहलू लगती है। क्योंकि जब तक जवान दिखेंगे, तभी तक जीवन के मज़े लूटने की इजाज़त मिलेगी। बस वहाँ वृद्धाश्रम हैं और यहाँ अपने ही घर में रूखा-सूखा जीवन। सबका आदर पाने के लिए स्वयं को एक अच्छा वृद्ध साबित कीजिए; समझ या आचरण से नहीं बल्कि अपने पहनावे आदी से!! यानी बुज़ुर्गों के लिए चैन तो कहीं भी नहीं दुनिया में – कहीं सर्जरी इत्यादी के ज़रिए ज़रूरत से अधिक जवान दिखने की कोशिश तो कहीं भद्दे कपड़े पहन और हाथ में औपचारिक मनके गिन अत्यधिक वृद्ध दिखने की चेष्टा।
अब एक पहलू और भी देखिए। किस्से ये भी ले लीजिए। एक वृद्ध पुरुष बस से उतरने के लिए ड्राइवर से अनुरोध करते हैं कि बेटा, अगले स्टॉप पर ज़रा आराम से रोक कर चलना। चालक हामी तो भर देता है पर जब स्टॉप आने पर वे वृद्धपुरुष ज़रा धीमि गती से बस की सीढ़ियाँ उतरते हैं तो चालक से रहा नहीं जाता है ऊँची आवाज़ और करारे शब्दों में अपनी राय रसीद किए बग़ैर, “बाबाजी, अब घर पर ही बैठा कीजिए! इस उम्र में ज़्यादा घूमने-फिरने की ज़रूरत नहीं है!” क्यों, दो-तीन पल अधिक रुकना पड़ गया, इसलिए? कुछ ऐसा ही सरकारी दफ़्तरों में भी होता है। नियम है कि वरिष्ठ नागरिकों को प्राथमिकता दी जाए तो एक ऐसे नागरिक कतार में सबसे आगे चले जाते हैं। अब सरकारी नौकर की टिप्पणी सुनिए, “अन्कल जी, क्या आपके कोई बच्चे नहीं हैं जो आप चले आये यहाँ पर?” तो काम करवाने से पहले ये बताएँ कि आपके कितने बच्चे हैं और कहीं उन्होंने आपको घर से निकाल बाहर तो नहीं किया है। अगर वृद्ध सक्षम हैं और घर के अन्दर-बाहर के कार्यों में योगदान देना चाहते हैं, तो इजाज़त नहीं, जब तक ये साबित न कर दें कि उनका “कोई सहारा नहीं है”।
इस बात से सरोकार करना पड़ेगा कि ऊपरोक्त परेशानियाँ किसी को भी झेलनी पड़ सकती हैं, फिर भले ही आप संयोजित परिवार में क्यों न रहते हों। इसलिए वृद्धों की बात आते ही केवल संयोजित परिवार व्यवस्था नामक हल सुझाकर मुद्दे को रफ़ा-दफ़ा नहीं किया जा सकता।
मेरी दुआ तो हमेशा ये ही होती है कि सब अपनी वृद्धावस्था का आनन्द लेने के बाद ही जीवन से अलविदा लें। समाज में वृद्ध-विमर्ष की आवश्यकता है। क्योंकि आर्थिक या पारिवारिक सुरक्षा पर्याप्त नहीं हो सकते किसी के जीने के लिए। हाँ, आज हालात ऐसे हैं कि इतना भी नहीं है वृद्धों के लिए। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम चिन्तन का विषय ही यहीं तक सीमित कर दें। सामाजिक, बौद्धिक और अन्य कई पहलुओं पर भी ध्यान देना पड़ेगा।
* इस पोस्ट को लिखने की प्रेरणा मिली चिट्ठाजगत की इन दो प्रविष्टियों से -
15 comments:
आपने वास्तव में एक अच्छे विषय पर लिखा है और बहुत अच्छा लिखा है
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
बढ़िया मसला लिया है. आजकल एक बुजुर्ग की डायरी के पन्ने लिखने में ही लगा हूँ/
अच्छा लिखा है रीमाजी,
ये सब संस्कारों की बाते हैं। वैसे वार्धक्य का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि शरीर कमजोर होता है, मन नहीं। वृद्धावस्था के लिए हर व्यक्ति खुद को तैयार रखे। उसी अनुरूप अपनी सोच और व्यवहार में भी परिवर्तन करता चले तो उस अवस्था में भी उन समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता जिनका उदाहरण आपने दिया है। मैने ऐसे बहुत से बुजुर्गों को देखा है जिनके साथ ये एहसास नहीं रहता कि वे उम्र में बहुत बड़े हैं।
अत्यन्त सार्थक विषय पर सार्थक चर्चा चलायी आपने । अब भारतीयता के संस्कार से भी "नित्यं वृद्धोपसेविनः" के सूत्र का लोप हो चला है । वृद्धालय में पहुँचाकर अपने कर्तव्य की इति-श्री कर ली जा रही है । मैं वृद्धालय की अवधारणा से ही घबरा जाता हूं कभी-कभी । एक वृद्धाश्रम देखा था खूब सुविधा-सम्पन्न,और फिर अचानक ही दिख गयी थी आत्मीयता की अनुपस्थिति । एक पोस्ट भी लिखी थी इसी संवेदना से दो चार होते हुए :
अति सूधो सनेह को मारग है
आपकी ब्लोगवाणी पसन्द का विजेट ठीक काम नहीं कर रहा । क्लिक करने का प्रयास किया, पर असफल रहा । इस कमेण्ट को मेरी पसन्द का क्लिक मान लें । धन्यवाद ।
आपकी बात अच्छी लगी
क्या यह मुहावरा केवल वृद्धों और खासकर किसी वृद्धा पर कटाक्ष करता है ,उसकी हंसी उडाता है ? या इसका अभिप्रेत (इन्टएंडेड ) मंतव्य बस किसी हास्यास्पद विसंगति को इंगित करना है ! कहीं अभिधार्थ (लिटेरल मीनिंग ) की ही परिधि में तो इस मुहावरे को नहीं बाँधा जा रहा है ? मगर इसके बहाने जो वृद्ध विमर्श किया गया है वह मर्मस्पर्शी है मौजू है और ध्यान देने योग्य है ! इस विवेचनात्मक पोस्ट के लिए बधाई !
बूढी घोडी लाल लगाम -एक पुनर्चिन्तन !
रीमा जी ,
आपकी इस पोस्ट ने अभी भी पीछा नहीं छोडा है तो सोचता हूँ थोडा शब्दार्थ कौतुक और कर लिया जाय -यह एक सहज समझ की बात है कि मुहावरे प्रायः अर्थ की शाब्दिक नहीं बल्कि अलंकारिक (फिगरेटिव ) अभिव्यक्ति करते हैं और जैसा वे प्रगटतः दीखते हैं उनका वह भाव नहीं होता -क्षमां कीजिये ,मैं साहित्य का व्यक्ति तो हूँ नहीं मगर एक पल्लवग्राही (डैब्लर / डिलेटाहंट) की ही ललक से इन विषयों पर अनाधिकारिक टिप्पणी का लोभ संवरण (रेसिस्ट ) नहीं कर पाता जैसा मैंने देखा है आप साहित्य की होते हुए भी विज्ञान के विषयों में सटीक उत्कंठा और प्रेक्षण (आब्जर्वेशन ) रखती हैं ! तो हिसाब बराबर (हा हा ) !
अब फिर इस मुहावरे पर .आया जाय -मेरी समझ से इस मुहावरे को किसी के अपमान के मंतव्य से नहीं बल्कि कुछ बेमेल कालिक या सांस्कृतिक संयोगों (एनाक्रोनिज्म /इन्कान्ग्र्युटी ) पर कटाक्ष के लिए इस्तेमाल में लाया जाता है ! अब जैसे कई सांस्कृतिक रीति रिवाज ,मान्यताएं स्थानिक प्रक्रति की होती हैं -फैशन ,पहनावा सभी कुछ ! एक उम्रदराज व्यक्ति से स्थानीय सुनहले नियमों के सम्मान की इच्छा असहज नही है -अब कोई भी उम्रदराज पुरुष या नारी स्थानीय अभिरुचियों के बजाय अगर दूसरी संस्कृति के पहनावों को तरजीह दे -एक भारतीय उम्रदराज ग्राम्य महिला साडी की बजाय स्कर्ट आदि परिधान में समाज में उठने बैठने लगे तो वह हास्यास्पद हो जायेगा ! अब मुहावरे गहरा वार करते हैं -सीधे दिल दिमाग पर प्रहार करते हैं -यहाँ कोई भी बोल सकता है देखो देखो -बूढी घोडी लाल लगाम ! यहाँ बूढा होना कतई तिरष्कृत या अपमान का भागी होना नहीं है -बल्कि उसका हास्यास्पद गतिविधि में लिप्त हो जाना ही लक्षित है ,अस्वीकार्य है !
यदि मैं गलत होऊँ या कुतर्क की राह पर हूँ तो कृपया निसंकोच टोकें !
आलेख अच्छा है। यह विमर्श होते रहना चाहिए। वैसे अब मानसिकता बदल रही है। वृद्ध यदि सुंदर लगने का प्रयत्न करते हैं तो उन्हें सराहा जाता है। लेकिन तभी जब जवानों के साथ उन के मनोनुकूल व्यवहार करें।
अरे वाह! इस लेख पर तो बहुत अच्छी टिप्पणियाँ आई हैं! लगता है मेरे ब्लोग का भविष्य उज्जवल है! सबका बहुत धन्यवाद!
आर्विन्द जी, आपकी टिप्पणी तो विषय पर पुनः विचार करने के लिए मजबूर कर गई है। अगर आप अनुमति दें, तो आपकी टिप्पणी उद्धृत करके एक और पोस्ट लिखना चाहूँगी। क्योंकि टिप्पणी का माध्यम पर्याप्त नहीं है आपके द्वारा उठाए गए सारे मुद्दों पर ठीक से चर्चा कर पाने के लिए!
मेरी दुआ तो हमेशा ये ही होती है कि सब अपनी वृद्धावस्था का आनन्द लेने के बाद ही जीवन से अलविदा लें।
बहुत अच्छे विचार है आपके ... वाकई आपका यह पोस्ट बहुत अच्छा लगा।
रीमा जी ,नेकी और पूंछ पूँछ ? आप लिखे ! हाँ उसके पहले हिमांशु की यह पोस्ट भी पढ़ लें !
http://ramyantar.blogspot.com/2009/04/blog-post_03.html?showComment=1238762880000#c2975811306785503855
आप ने जिस संवेदनशील तरीके से विषय को आगे बढाया है उस के लिये साधुवाद.
चिट्ठे के नीचे निम्न सुधार कर लें
त्रुटी = त्रुटि
सस्नेह -- शास्त्री
-- हर वैचारिक क्राति की नीव है लेखन, विचारों का आदानप्रदान, एवं सोचने के लिये प्रोत्साहन. हिन्दीजगत में एक सकारात्मक वैचारिक क्राति की जरूरत है.
महज 10 साल में हिन्दी चिट्ठे यह कार्य कर सकते हैं. अत: नियमित रूप से लिखते रहें, एवं टिपिया कर साथियों को प्रोत्साहित करते रहें. (सारथी: http://www.Sarathi.info)
bahut khub likha
बहुत सुन्दर लेख |
Tamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page
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