मंगलवार, 24 फ़रवरी 2009

बदले की भावना


मेरे मूल्यांकन में बदले की भावना किसी भी मनुष्य के चरित्र के लिए सबसे अधिक हानीकारक भावनाओं में से एक है। यह वो है जो आपको अन्दर ही अन्दर खाए चली जाती है और आपको बिल्कुल खोकला कर डालती है। ग्यारह या बारह वर्ष की उम्र में अपने पाठ्यक्रम की एक किताब ने मुझे बहुत प्रभावित किया था। किताब में थी ऐलेक्सैन्दर ड्युमास की काउंट ऑफ़ मोंटे क्रिस्टो की संक्षिप्त कहानी। अपने धोखेबाज दोस्तों की साजिश का शिकार इस गाथा का नायक ग़लत इल्जाम में उम्रकैद की सज़ा काटते हुए कई साल कारावास में व्यतीत करता है। वो किस तरह आखिरकार फरार होने में कामयाब होता है और एक नयी पहचान बनाकर फ़िर से सभ्य समाज में अपनी जगह बनाता है - इन वाक्यात का विवरण बहुत ही रोमांचक और प्रभावी है।

ख़ास तौर पर एक बच्चे की प्रचुर कल्पना के लिए तो अत्यधिक रोचक और मंत्र-मुग्ध कर देने वाली कहानी है यह। मजेदार षडयंत्र, खूब सारा जोखिम और उलझी हुई गुथ्थियों से भी भरपूर कहानी है यह।

परन्तु ये सब कारण नही थे इस कहानी के मुझ पर इतना गहरा प्रभाव छोड़ने के। सच तो यह की इस पेचीदा कथा के कारण मुझे शायद पहली बार एहसास हुआ की सही या ग़लत का फ़ैसला करना शायद मानवीय क्षमता के परे है। गुनहकारों को सज़ा देने और अच्छे लोगों व निजी मित्रों को ईनाम देने की शक्ती अगर किसी इंसान को मिल भी जाए तो वह सुकून की गारंटी नही है। नायक डान्टेज़ इतनी खूबसूरती से सफलतापूर्वक अपने सब दुश्मनों से एक-एक करके बदला लेने और अपने पुराने मित्रों की सहायता करने के बावजूद भी खुशी हासिल नही कर पाता। सब कुछ प्लान के मुताबिक होने पर भी और हर ऐशो-आराम का लुत्फ़ उठाने के बाद भी उसका मन अशांत रहता है। कैद किए जाने के पूर्व डांटेज की मंगेतर मर्सिडीज़ के साथ तो डांटेज के बदले के चलते सबसे बुरा होता है. उसके पति से तो डांटेज बदला ले लेता है लेकिन उस औरत का संसार पूरी तरह से बिखर जाता है जबकी उसने तो कोई पाप नही किया था. बस वो अपने जवान बेटे के लिए डांटेज से जीवनदान अवश्य मांग लेती है और उसी बेटे की खुशहाली के लिए भगवान् से दुआ मांगने के अलावा उसके अपने जीवन में और कुछ शेष नही बचता. डांटेज को भी इस बात का एहसास हो जाता है कि बदला लेते समय कई मासूम लोग आटे के साथ घुन की भाँती पिस जाते हैं. अंत में डांटेज को भी तभी खुशी मिलती है जब उसे एक खूबसूरत मासूम लड़की का प्यार मिल जाता है. (पुरूष प्रधान समाज में वह तो अपने से आधी उम्र की लड़की से शादी कर सकता है लेकिन "कलंकित" मर्सिडीज़ के लिए तो ऎसी कोई आशा नही है.)

न जाने क्यों बदला लेने को मानव समाज में - और ख़ास तौर पर आधुनिक भारतीय समाज में - संवेदना की दृष्टि से देखा जाता है. अगर फिल्मों की मान कर चलें तो बदला लेना न्याय और शूरवीरता का प्रतीक है. परन्तु ऐसा नही है. अगर हर व्यक्ती किसी-न-किसी "अपराध" का बदला लेने निकल पड़ेगा तो अराजकता एवं गुंडाराज फ़ैल जाएंगे. आख़िर हममे से ऐसा कौन है जिसके साथ कभी न कभी किसी प्रकार का अन्याय या धोखा न हुआ हो? हाँ, ये सच है की सभ्य समाज के नियमों, शिष्टाचार के बंधनों और जिंदगी की दौड़-धुप में समय की कमी के चलते आम लोग बदला लेने नही निकलते. कुछ प्रतिशत सज्जन जीव मन में भी आक्रोष या कड़वाहट नही रखते. अधिकाँश लोग मन ही मन कुढ़ते रहते हैं; अपने नजदीकी मित्रों या सगे-सम्बन्धियों से अपना दुःख बाँट कर मन हल्का करने के बाद भी मन में कड़वाहट जिंदा रखते हैं. मजबूरी वाली परिस्थितियों में चेहरे पर दिखावे कि मुस्कराहट लाने में भी कामयाब हो जाते हैं. बुद्धिजीवी तुच्छ तरीकों से तुच्छतम बातों के बदले ले लिया करते हैं. (उदाहरण के लिए अध्यापकगण कांफ्रेंसों और सम्मेलनों में अपने "दुश्मनों" की बात काटकर और उन्हें नीचा दिखाकर मन को तसल्ली दे लेते हैं.)

पर मेरे मन में यह बात कहीं ज्यादा संजीदा है. हमारे देश में और दुनिया के तकरीबन सभी देशों में क़ानून की किताब में भी एक प्रावधान है "प्रोवोकेशन" का - यानी अगर आपको उकसाया जाय तो आपको खून करने की भी सज़ा कम मिलेगी या कुछ हालात में तो पूरी माफ़ी तक मिल सकती है. मैं इसके बिल्कुल ख़िलाफ़ हूँ. क्या मात्र उकसाया जाना बदला लेने के लिए काफ़ी है? यानी दुनिया भर में बदला लेने के प्रति संवेदना है. मैं तो कहूंगी की चाहे कितना भी बड़ा जुर्म हो, बदला उससे भी बड़ा जुर्म है. इससे न तो किसी को इन्साफ मिलता है और न ही समाज सुधार होता है. अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ उठायें, विरोध करें लेकिन अगर विफल रहें तो हम इन्साफ बांटने की तलवार अपने हाथ में न उठाएं. इस बात से ही मन को संतुष्ट कर लें की हमने कोशिश की थी, बाकी हमारे बस में नही.
जानती हूँ कि यह कहना आसान है, करना बहुत जटिल. परन्तु चिंता का विषय तो यह है कि हम बदले को कोई बहुत बुरी चीज़ समझते ही नही. लेकिन सत्य यही है की बदला लेना ग़लत है, अपने अप्प में एक अपराध है. अगर हम इस बात को केवल सच्चे मन से स्वीकार कर लें और हृदयंगम कर लें, तो ये आत्मविकास लिए सही दिशा में एक बहुत बड़ा कदम होगा. और धीरे-धीरे बदले कि भावना को अपराध मानना समाज कि वास्तविकता भी बन जायेगी.

10 comments:

Arvind Mishra 23/2/09 23:45  

आपने मानवीयता के एक उदात्त पक्ष की पुरजोर वकालत की है -बदले की भावना दरअसल मनुष्य के पशुवत संस्कार की ही एक झलक मात्र है ! मनुष्य जितना उत्तरोत्तर विकसित होता जायेगा -लगता है ये जैवीय वृत्तियाँ ह्रासोन्मुख होती जायेगीं ! बहुत प्रभावित करती पोस्ट ! बधाई !

Arvind Mishra 23/2/09 23:47  

और हाँ ब्लॉग का ले आउट ही आपने पूरा चमका दिया है ! अब तो यह धाँसू बन गया है !

संगीता पुरी 24/2/09 00:36  

बहुत सुंदर पोस्‍ट लिखा है...महा शिव रात्रि की बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं..

अनिल कान्त 24/2/09 01:01  

वास्तव में आपके विचार काबिले तारीफ़ हैं

बेनामी,  24/2/09 01:19  

Reema, I'm sorry, I disagree a lot with you about the revenge thing. Also, you make many generalisations, which are pretty fine, but do not take into account many things, notably the fact that everyone picks and chooses their battles.

Also, most people do not strive for revenge, but for reparation. When that is not offered by the systems and procedures set in place, that is when one takes matters into one's own hands.

Instead of telling people not to be vengeful, it may be better to exhort people to not do anything that would hurt or upset another so much that they end up targetting you and yours in a bid for revenge.

As for the bit about Mercedes and Haidee, both women made their decisions. Mercedes retired to Edward's old cottage because she intended to pass the rest of her life in penance. If you read the novel, Edward offered her a pension that she may live out the rest of her days in peace. She is the one who refused (I wonder what she thought about taking money from her old lover who happened to be the man who faciliated her lying husband's death) and was seconded by Albert, who felt that he owed Edward everything after his father had destroyed Edward's life.

And Haidee, well, it was her decision again, to be with Edmund. Heck, she threw herself at Edmund at the end. So, uh, am not thrilled with the crack about men marrying women half their ages... no one was forcing anyone else, and Haidee was rich and independent. (This ain't Jane Eyre).

And because you took the example of the Count of Monte Cristo, I want to remind you that Edmund thirsted for revenge only because he learnt that those who had wronged him had become successful and prominent people at the cost of his freedom and life.

Reema 24/2/09 12:43  

Mishty, thanks love, for taking the time to read this despite the Hindi. Yes, I do make sweeping generalisations because I wanted to propose a general philosophical principle, ie revenge as a crime in human society. What I wish to put forth is that even when the systems and procedures set in place fail miserably, one is not to take matters in one's own hands. Just let it be known that the system has failed in your circumstances, register one's protest.
More often than not, the line between revenge and reparation is extremely fuzzy. Did Edmond only want reparation?
Sure Haydee makes her own decision (I say that much- Edmond finds love) but just consider -- what if Edmond were a female protagonist? I know that's neither here nor there but all I'm saying is that a woman marrying a man half her age isn't your run-of-the-mill conventional happy ending. And as for Mercedes, I felt this as a child and I still feel that she hardly had anything to repent for. What good would a pension be even if she got it from some other more acceptable source (a dead relative)? She doesn't have anything to look forward to in her life.
Edmond has an even more "noble" reason for revenge than the fact that the wrong-doers had become prosperous at his cost. He sought to avenge the untimely death of his poor father who died of grief.
But that's the point I wish to propose. No matter how valid the reason, revenge is still undesirable. Wasn't Edmond lucky to find so much wealth? A friend and fairy godfather in Abbe Faria? Wouldn't it be reparation if, as the Count of Monte Cristo, he simply met Mercedes and her son and told them the whole story. They could then do what they wanted with husband and father. Then would Mercedes truly have choice.

It'll be the end of most human problems if one were able to "exhort people to not do anything that would hurt or upset another so much that they end up targetting you and yours in a bid for revenge" but I think it is very important for the well-being of those who already try their best not to upset others - the good people - to not let revenge foster in their hearts when they are themselves wronged by someone.

के सी 24/2/09 12:46  

बदला लेने के लिए किया जाने वाला कर्म आप पर हुए अत्याचार का ही प्रतिरूप होगा अतः उससे खुशी मिलने की कामना व्यर्थ है, आपके विवेचन से पूर्ण सहमती स्वीकारें!

zeashan haider zaidi 25/2/09 22:17  

बदले की भावना मनुष्य का स्वभाव है. तो क्यों न इसे Positive सेंस दिया जाए. यानी अगर कोई बुराई करे तो बदले में हम उसके साथ अच्छाई करें. हो सकता है वह बुरा इस अच्छाई से अच्छा हो जाए. और हाँ अगर किसी को सजा भी देनी है तो बदले की भावना परे रखकर इन्साफ के तकाजे के साथ.

Reema 26/2/09 00:44  

Zeashan ji, आपकी इन्साफ वाली बात तो समझ में आती है जब तक सही तरीके से इन्साफ किया जाए. परन्तु बदले को अच्छाई में परिवर्तित करना? अपने किसी जानकार के हत्यारे का भला करुँ, ये तो मुझे कतई उचित नहीं लगेगा और न ही इतना बड़ा दिल है मेरा. पर ख़याल काबिले तारीफ़ है आपका.

zeashan haider zaidi 26/2/09 08:43  

रीमा जी, मेरा यही मतलब था कि बदले में अच्छाई तो हो. लेकिन इन्साफ की हत्या करके कदापि नहीं. एक छोटा सा उदाहरण हज़रत अली का, जब घायल अवस्था में उनका हत्यारा उनके सामने लाया गया तो हज़रत अली ने पहले उसको दूध पिलाया और फिर अपने दरबारियों से कहा कि इसको उतनी ही सजा दी जाये जितनी एक मनुष्य की हत्या की होनी चाहिए.

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