रविवार, 15 फ़रवरी 2009

Slumdog Millionaire - Mumbai के एक व्यक्ति की कहानी


मुझे ये फ़िल्म कुछ बहुत ज़्यादा अच्छी तो नही लगी लेकिन कमाल की बात तो यह है कि इसके पीछे तकरीबन झगडा ही कर बैठी थी। सच तो यह है की फ़िल्म में कुछ कलात्मक खामियां हैं पर फिर भी अच्छी लगी। दो बड़ी खामियां हैं। एक तो हिन्दी और अंग्रेजी का अनुचित मिश्रण। जब हिन्दी का इस्तेमाल किया ही था, तो अच्छे से करते -- पुलिसवालों को अंग्रेजी बोलते हुए दिखाने की क्या ज़रूरत थी और मुख्या पात्रों को भी ? वरना पूरी ही फ़िल्म अंग्रेज़ी में बनाते। ये तो ऐसा है जैसे "effect" के लिए थोड़ी-थोड़ी हिन्दी से सजावट कर दी। दूसरी बड़ी खामी है

"आर्ट" सिनेमा और हिन्दी कॉमर्शियल सिनेमा की शैलियों का अनुचित मिश्रण। आर्ट फ़िल्म की तरह जल्दी- जल्दी सीन बदलते हैं और कम- से- कम dialogue का इस्तेमाल किया गया है यानी दर्शकों को ख़ुद अर्थ समझना है लेकिन "plot" है बिल्कुल बॉलीवुड या परी-कथा का। एक्सपेरिमेंट तो अच्छा है लेकिन ये दोनों का मिलन मुझे तो कुछ जमा नही। परन्तु यह सच है की मुझे जो चीज़ें खामियां लग रही हैं इन्ही "खूबियों" के कारण इस फ़िल्म को इतने सारे विदेशी पुरूस्कार मिले हैं।

तो फिर मुझे इस फ़िल्म में अच्छा क्या लगा? Character-development (बहुत कोशिश की सोचने की लेकिन इसकी हिन्दी नही सूझी) प्रत्येक पात्र बहुत बढ़िया ढंग से उभर के आता है। जमाल और सलीम भाई हैं लेकिन दोनों का अपनी परिस्थितियों से जून्झने का तरीका बचपन से ही बिल्कुल अलग अलग है। और सलीम कभी जमाल को समझ ही नही पाता. खेल खेल में जब सलीम जमाल को शौचालय में बंद कर देता है ताकि वो अमिताभ का हेलीकॉप्टर न देख सके, तो जमाल सिर्फ़ हेलीकॉप्टर को देखने में ही नही, बल्कि इतनी भीड़ में अमिताभ का औटोग्राफ लेने में भी कामयाब होकर ही दिखाता है। उसमे इतना जुनून है कि वो जो ठान ले वो तो करके ही रहता है। और वो भी गाँधीजी के तरीके से, न की किसी दूसरे को कोई नुकसान पहुँचाके। न तो वो किसी से धक्का मुक्की करता है, न सलीम को उसे बंद करने के लिए कोसता है, बल्कि स्वयं मल से भरे खड्डे में कूद जाता है। मैं तो उस सीन पर हंस हंस दोहरी हो गई जबकी मल के कीचड को देख के उलटी जैसा भी लग रहा था। बेचारी अम्मी उसे साबुन से रगड़ रगड़ कर नहलाती है और पूछती है की इतना भी क्या ज़रूरी था अमिताभ का औटोग्राफ। और सलीम भाईसाब मौका देखते ही औटोग्राफ वाली तस्वीर को कुछ सिक्कों के लिए बेच आते हैं, बिना अपने छोटे भाई के जज़्बातों की कदर किए। पूछे जाने पर सलीम का जवाब - "अच्छा दाम मिल रहा था इसलिए बेच दी" - दोनों बच्चों के व्यक्तित्व का अन्तर स्पष्ट कर देता है। सलीम इस ग़लतफैमी में है की पैसे से ही खुशी मिल सकती है परन्तु जमाल के लिए उस तस्वीर की कीमत सिक्कों में नही लगाई जा सकती।

दंगों में दौड़ते हुए मिलती है लतिका -- उसके सगे सम्बन्धी भी दंगों में मारे जा चुके हैं लेकिन सलीम मदद करने के मूड में नही है। अब अगर यह एक बॉलीवुड फ़िल्म होती तो लतिका अपनी पिछली ज़िन्दगी की कहानी रुआन्सू होकर सुनाती मगर यहाँ हमें सिर्फ़ एक संकेत भर ही मिलता है कि वो भी दंगों की ही पीड़ित है। सलीम मात्र एक "survivor" है जबकि जमाल ज़िन्दगी इंसानी ढंग से जीना चाहता है, सिर्फ़ जिंदा रहना काफ़ी नही। वो अपनी इंसानियत को कभी भी नही छोड़ता, चाहे ज़िन्दगी उस पर कितने ही ज़ुल्म ढाये। अत्याचार से लड़ने के लिए बन्दूक उठाना ज़रूरी नही। जावेद जैसे अंडरवर्ल्ड डॉन का चमचा बनने कि ज़रूरत नही। जमाल नटखट है मगर उसको मेहनत से परहेज़ नही। किस्मत भी उसका साथ इसलिए देती है क्योंकि वो चौकन्ना रहता है और मदद करने का जज्बा नही छोड़ता। अगर वो कॉल सेंटर के एक मुलाजिम कि मदद करने के लिए अपना काम छोड़ कुछ देर के लिए उसकी कुर्सी नही संभालता तो उसे अपने भाई को ढून्डने का मौका भी नही मिलता। और न ही कौन बनेगा करोड़पति में हिस्सा लेने का। अपनी गरीबी के बावजूद वो उस शो में सिर्फ़ पैसों के लिए हिस्सा नही लेता। जब पुलिस कि पिटाई सहने के बाद इरफान खान (इंसपेक्टर) कहता है कि पता नही क्यों लेकिन जमाल को शो से मिलने वाले पैसों कि चिंता नही लग रही, तो वो हामी भरते हुए बताता है कि उसने तो सिर्फ़ इसलिए शो में भाग लिया था ताकि लतिका जहाँ भी हो वो जमाल को टीवी पर देख ले। सलीम हर बार यह सोचता है कि जमाल हार मान लेगा और लतिका को भूल जायेगा लेकिन अंततः उसे भी विशवास हो जाता है कि जमाल कभी भी हार मानने वाला नही है और तब उसे एहसास होता है कि कहीं न कहीं भगवान् ज़रूर हैं। सलीम स्वीकार कर लेता है कि चाहे वो बड़ा भाई है मगर परिस्थितियों से लड़ने का तरीका उसके छोटे भाई का ही सही है। बन्दूक से या ज़बरदस्ती करने से पैसा और ताकत मिल सकते हैं, सच्ची खुशी नही।

पूरी फ़िल्म में जमाल कई बार कई लोगों के हाथों पिटाई सहता है परन्तु एक बार भी वो किसी पर हाथ उठाने कि न तो कोशिश करता है और न ही ऐसी कोई इच्छा रखता है। सबसे अच्छी बात है कि उसमे कभी बदले कि भावना नही आती। चाहे बॉलीवुड हो या हॉलीवुड, जाने कितनी ही फिल्मों में कहानी केवल इतनी ही होती है कि हीरो इंसाफ के नाम पर किसी बात का बदला लेने निकल पड़ता है। हाल ही में आई गजिनी फ़िल्म की भी बस इतनी ही कहानी थी। इस सन्दर्भ में Slumdog का संदेश काफ़ी बेहतर है। स्वयं पर भरोसा रख कर अगर अपनी मंशा पूरी करना चाहो तो वो नामुमकिन नही। अत्याचार से लड़ने के लिए ख़ुद अत्याचारी बनने कि ज़रूरत नही -- ये है इस फ़िल्म का संदेश जो मुझे अच्छा लगा।

फ़िल्म में कॉमेडी और व्यंग्य का भी अच्छा इस्तेमाल है। सबसे मजेदार था ताज महल का असल में 5 स्टार होटल होना जो कि शहंशाह की मौत के कारण पूरा न हो सका -- कमरे नही बन पाये लेकिन स्वीमिंग पूल सही समय पर पूरा हो गया। उससे भी बढ़िया था टूरिस्टों पर व्यंग्य जो कि रियल इंडिया देखना चाहते हैं और धोबी-घाट पर गाय भैंसों कि तस्वीरें निकाल रहे हैं। कटाक्ष तो तब कसा गया जब सौ डॉलर का नोट थमा कर अमरीकी टूरिस्ट कहती है कि, "Son, this is real America!" यानी पैसे के अलावा कुछ नही। अपने मन कि तसल्ली के लिए और ख़ुद अच्छा महसूस करने के लिए थमा दिए पैसे। पर उस बच्चे को पैसे नही इज्ज़त कि ज़िन्दगी चाहिए, प्यार चाहिए. वो पैसे उसके काम के नही, यह बात ज़ाहिर हो जाती है और वो उन पैसों को आगे दान में दे देता है -- ये है इस फ़िल्म के हीरो का दिल।

शायद इस फ़िल्म का सबसे आपत्तिजनक वाक्य था जमाल का कहना कि अगर राम और अल्लाह न होते तो उसकी माँ जिंदा होती। लेकिन जिस तरह से जमाल का व्यक्तितत्व उभर के आता है, उससे साफ़ ज़ाहिर है कि उसे ऊपरवाले से शिकायत नही, बल्कि धर्म के उन नुमाइंदों से है जो धर्म के नाम पर खून-खराबा तक कर डालते हैं। उसकी ज़िन्दगी देख कर तो सलीम को भी मानना पड़ता है कि "God is great"।

लतिका की भूमिका कुछ खास नही है -- एक टिपिकल अबला नारी से ज़्यादा कुछ नही. पर खैर, एक फ़िल्म में सब कुछ अच्छा नही हो सकता. "Visual effect" के लिए कई चीज़ें बढ़ा चढा कर दिखाई गई है। Overall, विदेशी फ़िल्म के हिसाब से ठीक-ठाक ही है (इन शब्दों कि हिन्दी भी पता करनी पड़ेगी)।

परन्तु सबसे ज़रूरी बात यह है कि यह केवल एक व्यक्ति - जमाल - की कहानी के रूप में उभर कर आई - पूरी मुंबई कि नही और पूरे भारतवर्ष की तो बिल्कुल ही नही। हाँ, जिस उपन्यास पर यह आधारित है, उसे ज़रूर पढ़ना चाहूंगी - शायद उसकी कहानी व पात्र बिल्कुल अलग हों। पढ़ना पड़ेगा।

6 comments:

Arvind Mishra 15/2/09 23:44  

बहुत अच्छी समीक्षा ,खास तौर पर फ़िल्म के पात्रों के चरित्र विकास को लेकर ! इस फिल्म ने मेरे मन को भी काफी मथ डाला डाला है ,अंततः मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि कुछ कमियों को छोड़कर जैसा कि रीमा आपने इंगित भी किया है यह फिल्म बहुत अच्छी बन पडी है -सच है यह फिल्म कैरेक्टर डेवलोपमेंट की खूबसूरती के लिये खास तौर पर जानी जायेगी ! और प्रेम की उदात्तता -रूमानी आब्सेसन -के लिये भी !
यह आस्कर डिजर्व करती है ! क्योंकि इसने रीमा को हिन्दी की पहली ब्लॉग पोस्ट लिखा दी ! एक बेहतरीन पोस्ट रीमा ! अंतर्वस्तु (कंटेंट ) और भाषा दोनों मापदंड पर !
जरा वर्ड वेरीफिकेशन हटाएँगी क्या ?

Supriya 16/2/09 21:05  

Good analysis. Haven't yet seen the movie but now i know what to expect.

अनुराग 19/2/09 00:49  

बहुत ही अच्छा लिखा है. अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी रूपांतरण के लिए आप www.shabdkosh.com का सहारा ले सकती हैं.

आपके द्वारा इंगित कुछ शब्दों के अर्थ शब्दकोष डॉट कॉम की सहायता से:

Visual effect - आभासी प्रभाव
Overall - 'कुल मिला जुला कर' या 'समग्र रूप से' या 'समस्त रूप से'

हें प्रभु यह तेरापंथ 27/2/09 03:02  

बहुत ही अच्छा लिखा है. "स्लमडॉग"पर विस्तार पु‍र्वक पढे मेरे ब्लोग पर.



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निशांत मिश्र - Nishant Mishra 13/3/09 05:58  

The film failed to impress me. It doesn't deserve so many Oscars. Rahman has given ordinary compositions.

Reema 13/3/09 11:09  

I agree about the Oscars. I had written this much before the award-thing and also I had hoped that the movie might turn out to be beneficial for the slum-people by bringing their plight into th limelight. But I'm disappointed by the government's reaction, especially after the Oscars-- from PM to President to Advani, everyone went on celebrating the awards. They did not announce one single scheme for the uplift of the actual people. That is very sad.

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