मंगलवार, 24 फ़रवरी 2009

प्रभाव



किस पर किस का कितना
कब हो जाए, यह कहना
है नामुमकिन सपना

कोई मुलाक़ात, इक बात
न जाने कब किसके साथ
बन जाएँ कैसे हालात --

पुस्तक, चित्र या फिर आइना
बदल के रख दे हर माइना
समझ तो इसको मैं पाई न

कभी-कबार धुंधला एहसास
धीरे से होता आभास
बंधा जाता जीने में आस

प्रश्न चिह्न पर बहुत बड़ा
क्यों सब पे इक-सा न पड़ा?
अपनों को क्यों दिया लड़ा?

7 comments:

Satish Chandra Satyarthi 24/2/09 18:58  

भावों की बड़ी सुन्दर अभिव्यक्ति की है आपने रीमा जी,
इसी प्रकार लिखती रहें
शुभकामनाएं

Himanshu Pandey 24/2/09 19:05  

सुन्दर रचना. प्रश्नचिह्न तो पड़ा ही है सबपर कहीं न कहीं, किसी न किसी तरह का.

Reema 24/2/09 19:18  

आपने इसे पढने के लायक समझा ये मेरा सौभाग्य है. मैं तो सिर्फ़ तुकबंदी की कोशिश कर रही थी -- दस-बारह साल के बाद हिन्दी भाषा में कुछ भी लिख पाने का प्रयत्न कर रही हूँ बस.

Arvind Mishra 24/2/09 19:21  

यह कवि रीमा की प्रथम कविता है -बहुत गहन भाव छुपे हैं ! समझने का प्रयास कर रहा हूँ ! और अपने काव्य विश्लेषक हिमांशु की मदद लेनी पड़ेगी तो क्या ले लूँ ? शेष टिप्पणी /पूर्ण टिप्पणी ब्लॉग पोस्ट पर ! पर शाबाश ! मंत्रमुग्ध करने वाली लाईनें ! !
हे हिमांशु ! कुछ समझना था आपसे और आपने टिप्पणी कर दी ! चलिए !! चीजें कितनी तेजी से भाग रही हैं !

Arvind Mishra 24/2/09 20:03  

आपने रायिमिंग /मीटर को भी संभाला और इसी बहाने बडी बात भी कह डाली ! कविता के बारे में तुलसी कहते हैं -सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे अर्थ अमित अति आखर थोड़े !
मैं तो वही साक्षात देख रहा हूँ ! नतमस्तक !!

Supriya 25/2/09 19:27  

Really liked it. You never know who you meet in life.

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