कितने वर्ष जीना चाहोगे? - 2
"मैम!?" वो लड़का चिल्ला-सा पड़ा. "मैंने तो ऐसा नहीं कहा! मैं अपने घर के बड़ों से बेहद प्यार करता हूँ. मैं चाहता हूँ कि भगवान उन्हें बहुत-बहुत लम्बी उम्र दे! आप ने ऐसा सोचा भी कैसे, मैम?" नवी कक्षा में पहुँचने से बहुत पहले ही लड़के रोना-धोना अपनी बेज्ज़ती समझते हैं - रोने को लड़कियों का काम कहते हैं पर वो रुआन्सू-सा हो गया था. इससे पहले की अध्यापिका कुछ कहती या करती, मेरी कॉमिक वाली दोस्त अपनी कुर्सी से उठ खड़ी हुई और बोली, "मैम, ये बिलकुल ठीक कह रहा है. आपने उसकी बात का बिलकुल गलत अर्थ निकाल लिया. वो तो केवल इतना कहना चाहता होगा की बड़े लोगों की ज़िन्दगी कितनी बोरिंग-सी लगती है. हमारे लिए तो अच्छा है क्योंकि वे लोग सब कुछ हमारे लिए ही करते हैं लेकिन उनके खुद के लिए कितना बोरिंग होगा. पूरे समय बस बच्चों, घर और ऑफिस के काम करने की ज़िम्मेदारी और कोई आराम नहीं!"
तभी एक और छात्र ने कहा, "मैम, मेरे हिसाब से तो साठ बहुत ज्यादा है. मेरे लिए तो चालीस की उम्र ही काफी है. और फिर इतने साल जीकर करना भी क्या है?"
इसके बाद तो सब एक साथ बोलने लगे -
"पचास, मैम!"
"नहीं, नहीं, पैंतालिस!"
"मैम, चालीस!"
"साठ!"
"मैम, पैंसठ बहुत है!"
"बासठ!"
"मैम उनचास!"
"पचपन!"
सब नियंत्रण से बाहर हो चुके थे और अध्यापिका शान्ति रखने के लिए कह ही रही थी, कि एक और जवाब आया -
"पैंतीस!"
मेरे पाँव के नीचे से तो जैसे ज़मीन ही खिसक गयी. क्योंकि ये उत्तर देने वाली कोई और नहीं, मेरी बगल में बैठी मेरी सबसे प्रिय दोस्त थी. मैं उसे एक टक घूर रही थी. आखिर वो ऐसा कैसे कह सकती थी कि वह सिर्फ पैंतीस साल तक जीना चाहती है? नहीं, यह ज़रूर मज़ाक कर रही है, मैंने सोचा.
"क्या कहा तुमने?" अध्यापिका ने पूछा. "पैंतीस? केवल पैंतीस?"
"जी मैम," मेरी दोस्त ने जवाब दिया.
अध्यापिका ने एक गहरी सांस ली और बोली, "क्या तुम्हें पता है कि मेरी अपनी उम्र छत्तीस वर्ष की है?"
"मैम, लगती नहीं!" सबसे पीछे बैठे एक लड़के की आवाज़ आई.
"तुम चुप बैठो! किसीने तुम्हारी राय पूछी?" और अध्यापिका ने पलटकर मेरी दोस्त कि ओर देखा.
उसने कहा, "मैम, वैसे तो मुझे ये बात एक ज्योतिषी ने बताई थी कि मैं केवल पैंतीस साल ही जीऊँगी लेकिन मैं स्वयं भी इतनी आयु के ख़याल से खुश हूँ. और फिर इतिहास भी तो देखिए. हमारी इतिहास की पुस्तक छोटी उम्र में ही चल बसने वालों से भरी पड़ी हैं और उन्ही को हम आज याद करते हैं. महान कवि कीट्स से लेकर भगत सिंह तक! यानी उन्ही का जीवन सफल था - ज्यादा लम्बा जीने से आपका जीवन ज्यादा सार्थक हो जाएगा, ऐसा तो कोई ज़रूरी नहीं!"
मैं मन ही मन मुस्कुराई. मुझे अब विशवास हो गया था कि मेरी दोस्त केवल मज़ा लेने के लिए अध्यापिका के सामने उल्टे-सीधे तर्क झाड़ रही थी. पर मैं थोडी हैरान भी थी. एक तो उसका चेहरा बहुत ही गंभीर था और वो नाटक करती लग नहीं रही थी और दूसरा, ऐसी टाइमपास वाली हरकतें मैं तो कभी-कबार कर भी लेती थी, पर वह तो कभी नहीं करती थी.
मैं ये सब अभी सोच ही रही थी कि अध्यापिका जी ने पूरी कक्षा को समझाना शुरू कर दिया था. वे आइंस्टाइन, गाँधी, शेक्स्पीअर व डार्विन की जीवनियों से उदाहरण भी दे रही थी. वे कह रही थी कि केवल ज़िम्मेदारी के डर से छोटी उम्र की कामना करना बिलकुल बेवकूफी है. ऐसा बहुत कुछ कहा और अंत में यह कि अपनी जान-पहचान के किसी भी बुजुर्ग-से-बुजुर्ग व्यक्ति से पूछ लेना, कोई भी मरना नहीं चाहता है.
जब वे अपनी बात ख़त्म कर अगले प्रश्न की ओर बढ़ने लगीं, तो मैंने झट-से अपना हाथ खड़ा कर दिया. "हाँ बोलो!" अध्यापिका ने मेरी ओर देख कर कहा.
"मैम, बाकी सबका तो पता नहीं, पर मैं तेईस जनवरी दो हज़ार बयासी को मरना चाहती हूँ!" मैंने फटाक से कहा.
"हैं?!" अध्यापिका के मुंह से बस इतना ही निकला.
मैंने आगे बोला, "मैम, उस दिन मेरा सौवां जन्मदिन होगा. मैं अच्छे से चॉकलेट केक खाकर और सारे तोहफे देखकर ख़ुशी-ख़ुशी उस दिन मर जाऊँगी."
पूरी कक्षा में सबकी ठहाकेदार हंसी गूँज उठी. सबसे पीछे बैठे उस लड़के ने "हैप्पी बर्डे टू यू, दादी अम्मा" गाना शुरू कर दिया और कई बच्चे उसके साथ गाने लग पड़े. अध्यापिका जी उन्हें शांत करवा ही रही थी कि अगले पीरिअड की घंटी बज गयी. उन्होंने मेज़ से अपना बैग उठाया लेकिन सीधा बाहर जाने कि बजाए मेरी ओर आने लगी. मैं घबरा गई, "आज तो खूब सुनना पड़ेगा. बस प्रिंसिपल के पास न ले जाएँ."
लेकिन उन्होंने केवल हल्का सा मुस्कुरा कर एक बार मेरा सर थप-थपाया और पलट कर बाहर चली गयीं. मैंने उस समय तो राहत कि सांस ले ली पर उसके एक-दो हफ्ते बाद तक सब ने मुझे कई रंगीन नामों से बुलाया - ग्रैनी, दादी अम्मा, बूढी घोड़ी, रयूमैटिक्स, भटकती आत्मा, वगैरा वगैरा. खैर, मैं भी ईंट का जवाब पत्थर से देती थी.
आज, मुझे उन अध्यापिका जी का न तो नाम ही याद है और न चेहरा. मैं उन्हें कभी नहीं बता पाऊँगी कि उनके उस प्रश्न ने कितनी गहरी छाप छोड़ी. वो प्रश्न और उससे जुड़े हुए कई और प्रश्न मुझे आज भी सताते हैं.
10 comments:
बहुत बढिया शुभकामनाओं सहित
मैं भी आपकी तरह १०० साल जीना चाहूंगी ..पर एक शर्त है ऐसा तब ही हो जब मुझे किसी सहारे की जरुरत न हो. हिंदी में मुख्यतः चार ही अग्रीगेटर हैं .ब्लोग्वानी ,नारद ,हिंदी ब्लोग्स ,और चिठ्ठा जगत.
वाह ,मजा आ गया ! संस्मरण भी कहानी भी ! बिलकुल पटकथा की तरह -एक एक शब्द चित्र जीवंत हो उठे ! दृश्य साकार हो उठे ! यह आपकी हिन्दी की बेहतरीन रचनाओं में शुमार होगी -यह मेरा आशीर्वाद रहा !
कितना जियें ,किस लिए जियें ? एक कवि ने लिखा -एक पल ही जियो फूल बन कर जियो शूल बनकर ठहरना नहीं जिन्दगी !
अंगरेजी की वह कहावत तो है ही -लिव इन डीड्स नॉट ईयर्स ! पर मुझे यह बिलकुल ठीक बात लगी कि जब तक केक और मिठाईयां मिलती रहें भला भरपूर जी लेने में हर्ज ही क्या है ? हमारी संस्कृति तो जीवेम शरदः शतम की रही ही है !
आप अपने लिए नहीं दूसरों के लिए जियें -जब तक जियें ! मुझे लगता है शंकराचार्य ,विवेकानद और रामानुजम और भी जीते तो मानवता का कितना भला होता !
मेरा ह्रदय के कोर से निकला लांग लिव का आशीर्वाद रीमा इसी अर्थ में ही है ! और तुमने उसे चरितार्थ करना शुरू भी कर दिया है ? ग्रेट !
लवली जी, आपकी कामना ज़रूर पूरी हो! मुझे पूरा यकीन है की आपको किसी के सहारे की आवश्यकता नहीं पड़ेगी बल्की आप न जाने कितने अपनों व परायों का सहारा बनेंगी. पर हाँ, सगे सम्बन्धियों के बिन मांगे दिए गए प्यार व सहारे को कभी अहम के कारण ठुकराना भी नहीं चाहिए.
अरविन्द जी, आपका प्रोत्साहन सरान्खों पर! और आपने बिलकुल सही कहा कि "शंकराचार्य ,विवेकानद और रामानुजम और भी जीते तो मानवता का कितना भला होता !" क्योंकि एक दिन में चौबीस घंटे ही होते हैं - उसमे सीमित कार्य ही किए जा सकते हैं. अगर सबको ईयर्स ज्यादा मिलेंगे तो डीड्स भी ज्यादा कर पाएँगे न!
और मैं बुढापे को लाचारी का पर्यायवाची कभी भी मान पायी हूँ, चाहे कोई कितना भी इस बात को साबित करने कि कोशिश करे. बुजुर्ग तो दुनिया के सबसे मज़बूत स्तम्भ होते हैं. और पता नहीं अगले दस सालों में ही विज्ञान कितनी तरक्की कर लेगा. दीपक चोपडा की किताब तो नहीं पढ़ी है, लेकिन शीर्षक अच्छा लगता है - "एजलेस बॉडी, टाइमलेस माइंड"
रीमा जी, आपका ब्लौग बहुत अच्छा है. आपने मेरे ब्लौग 'ज़ेन कथा' पर अपना प्रेरक कमेन्ट दिया, उसके लिए आपका धन्यवाद. उस ब्लौग की कुछ कहानियां मैंने http://www.spiritual-short-stories.com से लेकर अनूदित की हैं. कृपया मुझे पत्थर की तीन बहनों की कहानियां के अन्य वेबपेज बताएं. मैं उस कहानी के दुसरे वर्ज़न पढना चाहता हूँ.
एक अच्छा व्यंग्य. मज़ा आया पढ़कर.
जीना और मरना अगर इन्सान के हाथ में होता तो यकीं मानिये इस खुबसूरत दुनिया को छोड़कर कोई भी जाना नहीं चाहेगा.
माननीय महोदय
सादर अभिवादन
आज मैंने आपके ब्लाग पर भ्रमण किया। आपकी रचनाशीलता के लिए
बधाई स्वीकारें। रचनाओं के प्रकशन के लिए साहित्यिक पत्रिकाओं के पते चाहते हों तो मेरे ब्लाग पर अवश्य ही पधारें।
अखिलेश शुक्ल
संपादक कथा चक्र
http://katha-chakra.blogspot.com
reema ji aap bahut acha likhti hai. aapki ye rachna muje pasand aayi. apki is rachna k liye aapko badhai
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