सोमवार, 6 अप्रैल 2009

चीनी हिन्दी

आज के अख़बार में पढ़ा कि चीन में अब हर साल दो सौ विद्यार्थी हिन्दी भाषा में ग्रैजुएट हो जाते हैं। और उससे बडी बात यह कि उनके इस हिन्दी के ज्ञान के कारण उन्हें धड़ा-धड़ नौकरियाँ भी मिल जाती हैं। यहाँ तक की कम्पनियों को जितने लोग चाहिए, उतने नहीं मिल पाते, इसलिए हिन्दी जानने वाले मनपसन्द कम्पनी चुन सकते हैं। चीन के एक विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ा रहे एक अध्यापक ने कहा कि उनके छात्र तो हिन्दी सीखने के अपने फ़ैसले पर बहुत खुश हैं और वे भारत की संस्कृति में भी खूब रुचि रखते हैं।chini hindi

China’s leading Bharatnatyam dancer, Jin Shan Shan, with her daughter Jessie in Beijing

        

परन्तु इन अध्यापक को इस बात का बेहद अफ़सोस है कि भारत सरकार व भारतवासी हिन्दी को अन्तर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में प्रस्तुत नहीं करते बल्कि सदैव स्थानीय अथवा राष्ट्रीय भाषा ही मानते हैं। उनका कहना यह है कि अगर थोडा प्रोत्साहन मिले तो सभी देशों में जब छात्रों को एक विदेशी भाषा सीखने का विकल्प मिलता है तो वे दूसरी भाषाओं की तरह हिन्दी को भी सीखना चाहेंगे।

मैंने भी मेल्बर्न शहर में कई छात्रों कॊ वहाँ के विश्वविद्यालयों में हिन्दी बोलते सुना। वे किसी भी हिन्दी भाषी भारतीय को देखकर बहुत खुश हो जाते और चाहते की आप उनसे केवल हिन्दी में ही बात करें। लगता है कि अब हिन्दी की किसमत विदेश में चमकेगी और फिर जब विदेशी भारत आकर हिन्दी पढ़ाएँगे तो शायद भारतीयों की रुचि जागेगी!


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गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

बूढ़ी घोड़ी, लाल लगाम!*

ये हिन्दी भाषा के सबसे अधिक दुःखदायी मुहावरों

Happy Old Age 2 

में

से एक है। जब भारतीय संस्कृति वृद्धों के प्रति इतनी संवेदनशील व आदरभाव वाली है तो हमारी भाषा में ऐसा कथन कहाँ से घुस गया?    शायद अजित वडनेरकर जी इस विषय में कुछ रौशनी डाल सकें शब्दों के सफ़र पर। क्या हमें बुज़ुर्गों का आदर केवल तभी करना चाहिए जब वे ऊट-पटांग सामाजिक सीमाओं में बंधे रहें, वरना परिहास?


कपड़ा वही, दाम भी वही, परन्तु चुना जाएगा बेरंग या गन्दा-भूरा। पसन्द अपनी अपनी होती है लेकिन सिर्फ़ इस डर से कि कहीं कोई “बूढ़ी *** ” न कह दे? मेरी समझ से तो बाहर है।

ख़ैर, अगर बात बस कपड़ों वगैरा की होती तो इतना बड़ा मसला न होता, पर बात तो है मानसिकता की। हमेशा ऐसा सुनने को क्यों मिलता है (सम्पूर्ण भारत में, पर खासकर छोटे शहरों-कस्बों में) कि “अरे! इन बुड्ढा-बूढी की ज़रूरतें ही कितनी होंगी? इन्हें तो अब सन्तोश रखना चाहिए!” अर्थात अपना मन मार के जीना सीखना चाहिए!


क्या ऐसा लिखा है वेदों, शास्त्रों या ग्रन्थों में?


कमाल की बात यह है कि पश्चिम में जो उम्र छिपाने और सदैव जवान दिखने की पागलपन की हद तक होड़ है, वो मुझे तो इसी मानसिकता का दूसरा पहलू लगती है। क्योंकि जब तक जवान दिखेंगे, तभी तक जीवन के मज़े लूटने की इजाज़त मिलेगी। बस वहाँ वृद्धाश्रम हैं और यहाँ अपने ही घर में रूखा-सूखा जीवन। सबका आदर पाने के लिए स्वयं को एक अच्छा वृद्ध साबित कीजिए; समझ या आचरण से नहीं बल्कि अपने पहनावे आदी से!! यानी बुज़ुर्गों के लिए चैन तो कहीं भी नहीं दुनिया में – कहीं सर्जरी इत्यादी के ज़रिए ज़रूरत से अधिक जवान दिखने की कोशिश तो कहीं भद्दे कपड़े पहन और हाथ में औपचारिक मनके गिन अत्यधिक वृद्ध दिखने की चेष्टा।


अब एक पहलू और भी देखिए। किस्से ये भी ले लीजिए। एक वृद्ध पुरुष बस से उतरने के लिए ड्राइवर से अनुरोध करते हैं कि बेटा, अगले स्टॉप पर ज़रा आराम से रोक कर चलना। चालक हामी तो भर देता है पर जब स्टॉप आने पर वे वृद्धपुरुष ज़रा धीमि गती से बस की सीढ़ियाँ उतरते हैं तो चालक से रहा नहीं जाता है ऊँची आवाज़ और करारे शब्दों में अपनी राय रसीद किए बग़ैर, “बाबाजी, अब घर पर ही बैठा कीजिए! इस उम्र में ज़्यादा घूमने-फिरने की ज़रूरत नहीं है!” क्यों, दो-तीन पल अधिक रुकना पड़ गया, इसलिए? कुछ ऐसा ही सरकारी दफ़्तरों में भी होता है। नियम है कि वरिष्ठ नागरिकों को प्राथमिकता दी जाए तो एक ऐसे नागरिक कतार में सबसे आगे चले जाते हैं। अब सरकारी नौकर की टिप्पणी सुनिए, “अन्कल जी, क्या आपके कोई बच्चे नहीं हैं जो आप चले आये यहाँ पर?” तो काम करवाने से पहले ये बताएँ कि आपके कितने बच्चे हैं और कहीं उन्होंने आपको घर से निकाल बाहर तो नहीं किया है। अगर  वृद्ध सक्षम हैं और घर के अन्दर-बाहर के कार्यों में योगदान देना चाहते हैं, तो इजाज़त नहीं, जब तक ये साबित न कर दें कि उनका “कोई सहारा नहीं है”।


इस बात से सरोकार करना पड़ेगा कि ऊपरोक्त परेशानियाँ किसी को भी झेलनी पड़ सकती हैं, फिर भले ही आप संयोजित परिवार में क्यों न रहते हों। इसलिए वृद्धों की बात आते ही केवल संयोजित परिवार व्यवस्था नामक हल सुझाकर मुद्दे को रफ़ा-दफ़ा नहीं किया जा सकता।


मेरी दुआ तो हमेशा ये ही होती है कि सब अपनी वृद्धावस्था का आनन्द लेने के बाद ही जीवन से अलविदा लें। समाज में वृद्ध-विमर्ष की आवश्यकता है। क्योंकि आर्थिक या पारिवारिक सुरक्षा पर्याप्त नहीं हो सकते किसी के जीने के लिए। हाँ, आज हालात ऐसे हैं कि इतना भी नहीं है वृद्धों के लिए। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम चिन्तन का विषय ही यहीं तक सीमित कर दें। सामाजिक, बौद्धिक और अन्य कई पहलुओं पर भी ध्यान देना पड़ेगा।



* इस पोस्ट को लिखने की प्रेरणा मिली चिट्ठाजगत की इन दो प्रविष्टियों से -
बूढे लोगों का क्या काम समाज में!

वृद्धावस्था और आधुनिक श्रवण कुमार


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गुरुवार, 26 मार्च 2009

नैनो न सजाना नयनन में…

nano 1

ये लखटकिया गाड़ी असल में दूसरी गाड़ियों से भी महन्गी पड़ सकती है, इसलिए सावधान! ये जिस कथित आम आदमी के लिए बनाई गई है, कम-स-कम उसकी पहुँच से तो बाहर है। जहाँ महन्गी से महन्गी गाड़ियों को बुक कराने की कीमत पाँच से पंद्रह हज़ार है, वहाँ इसके लिए देने पड़ेंगे पूरे ९५,०००!!! सिन्गूर का किस्सा तो सबको मलूम है पर उसकी भरपाई तो पहले ही दाम को एक लाख से एक पैंतीस करके की जा चुकी है। अगर आप गाड़ी मिलने के समय तक का ब्याज लगाएँ तो तक्रीबन पौने दो लाख की कीमत पड़ेगी नैनो के सबसे कम दाम वाले मॉडल की।


nano2 तो अभी तो ये गाड़ी उन्हीं के लिए है जो इसे शौकिया या विह्वलता वश खरीदना चाहें, यानी अपने कथित उद्देश्य से बिलकुल विपरीत। तो अगर आप इस साल कम दाम में गाड़ी खरीदना चाहते हैं तो पुरानी मारुति, सैन्ट्रो या ज़ेन इत्यादी में से कोई ले लीजिए।


मैं गाड़ियों के मामले में तो विशेषज्ञ नहीं हूँ, पर पैसा समझ-बूझ से खर्च करने के मामले में ज़रूर बनना चाहती हूँ और गहन-चिन्तन सोते-जागते जारी रहता है! इसलिए फ़िलहाल चाहे मेरा कोई नयी साइकिल तक लेने का इरादा नहीं है, पर नैनो पर मुबाहिसों के चलते मैंने भी बहती गन्गा में हाथ धो लिए। मुफ़्त की सलाह बाँटना भारतीयों का प्रिय शुगल है, ऐसा अविनाश वाचस्पति जी ने एक रोचक काव्य-टिप्पणी में हाल ही में कहा था, सो लीजिए मैंने भी बाँट दी!


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रविवार, 22 मार्च 2009

मज़ेदार, ज्ञानवर्धक, बढ़िया, रोचक व अनुपम

चिट्ठाजगत में प्रतिदिन अनेकों प्रविष्टियाँ ऐसे विशेषणों से सराही जाती हैं (और चाहिए भी) । ये हिन्दी चिट्ठाजगत की उप्लब्धी है और चिट्ठाकारों की प्रखरता का प्रमाण । पर उसके बाद क्या? हाँ, ब्लॉगवानी सबसे अधिक पसन्द की गई प्रविष्टियों की सूची दिखाता है ताकी दूसरे पाठक भी उन्हें पढ़ सकें । लेकिन अन्ततः सब लिखा-पढ़ा अलग-अलग आर्काइवों की गलियों में कहीं खो जाता है ।


हाल ही में चिट्ठाजगत के आर्काइवों का भ्रमण करते हुए सारथी पर एक तर्क पढ़ा कि जब हम अख़बार की भान्ति कुछ पढ़ते हैं तो हमारी स्मरण शक्ती कम होती चली जाती है । कहीं हम ब्लॉग भी भूल जाने के लिए तो नहीं पढ़ रहे हैं ?


मानती हूँ कि हर पसन्दीदा पोस्ट को हृदयंगम कर लेना न तो नैसर्गिक है और न ही लाज़मी । ये भी सच है कि कभी-कभी कोई लेख, कहानी या कविता हमें प्रभावित अथवा प्रेरित कर जाती है; फिर भले ही पढ़ा हुआ याद रहे न रहे, परन्तु उससे प्राप्त हुई प्रेरणा और प्रॊत्साहन मस्तिष्क में कहीं न कहीं घर कर ही जाते हैं । मेरी मान्यता तो यह भी है कि ज़िन्दगी का घड़ा पलों से ही भरता है यानी अगर कोई लिखित रचना पल भर का बौद्धिक आनन्द भी दे जाए तो वह एहसास ही पाठक व लेखक दोनों का पारितोषक है, अभीप्सित है । और किसी चर्चा के चलते किसी लेख में कही गई बात याद आ जाए, तो  उचित आर्काइव में जाकर उद्धृत किया जा सकता है, या फिर याद्दाश्त से उल्लेख ।


ये सब जानने-समझने के बाद भी एक परिस्थिती छूट जाती है । दसियों रचनाएँ पढ़ते-पढ़ते कोई एक ऐसी मिल जाती है जिसे खो देने का डर सा लगता है । पढ़ने और टिपियाने के बाद भी मन नहीं भरता । मेरे लिए बिलकुल वैसा है जैसे कोई किताब पुस्तकालय से लेकर पढ़ ली जाए, जितनी बार इजाज़त हो उतनी बार दुबारा उधार ले ली जाए, और उसके बाद भी उसे खरीदने को मन ललचाये ।  इसलिए क्योंकि ऐसा लगता है कि वो किताब फिर से पढ़नी चाहिए – उसे जितनी बार पढ़ा जाएगा कुछ नया सीखने को मिलेगा, नई प्रेरणा मिलेगी । ऐसा ही आभास कुछ गिनी-चुनी ब्लॉग-प्रविष्टियों को पढ़कर मुझे हुआ । क्या किसी और को भी होता है?


ख़ैर, मैंने इसका उपाय ढूढने का प्रयत्न किया है । ब्लॉगर के “My Links” विजेट के माध्यम से उन ख़ास रचनाओं को अपने ब्लॉग पर सुरक्षित रखा है, ताकि वे हर वक्त सामने ही दिखती रहें और उन्हें कभी-भी दुबारा पढ़ा जा सके । साथ ही साथ स्वयं को एवम् आगंतुकों को आदेश भी दिया गया है कि “इन्हें भी पढ़ें!” (वैसे बार-बार पढ़ने का मौका मिले-न-मिले, मन को तसल्ली तो है कि जो लेख फिर से पढ़ने चाहिए, वो मैंने सम्भाल कर, ठीक सामने ही रख लिए हैं!)


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मंगलवार, 10 मार्च 2009

कितने वर्ष जीना चाहोगे? - 2

"मैम!?" वो लड़का चिल्ला-सा पड़ा. "मैंने तो ऐसा नहीं कहा! मैं अपने घर के बड़ों से बेहद प्यार करता हूँ. मैं चाहता हूँ कि भगवान उन्हें बहुत-बहुत लम्बी उम्र दे! आप ने ऐसा सोचा भी कैसे, मैम?" नवी कक्षा में पहुँचने से बहुत पहले ही लड़के रोना-धोना अपनी बेज्ज़ती समझते हैं - रोने को लड़कियों का काम कहते हैं पर वो रुआन्सू-सा हो गया था. इससे पहले की अध्यापिका कुछ कहती या करती, मेरी कॉमिक वाली दोस्त अपनी कुर्सी से उठ खड़ी हुई और बोली, "मैम, ये बिलकुल ठीक कह रहा है. आपने उसकी बात का बिलकुल गलत अर्थ निकाल लिया. वो तो केवल इतना कहना चाहता होगा की बड़े लोगों की ज़िन्दगी कितनी बोरिंग-सी लगती है. हमारे लिए तो अच्छा है क्योंकि वे लोग सब कुछ हमारे लिए ही करते हैं लेकिन उनके खुद के लिए कितना बोरिंग होगा. पूरे समय बस बच्चों, घर और ऑफिस के काम करने की ज़िम्मेदारी और कोई आराम नहीं!"
तभी एक और छात्र ने कहा, "मैम, मेरे हिसाब से तो साठ बहुत ज्यादा है. मेरे लिए तो चालीस की उम्र ही काफी है. और फिर इतने साल जीकर करना भी क्या है?"
इसके बाद तो सब एक साथ बोलने लगे -
"पचास, मैम!"
"नहीं, नहीं, पैंतालिस!"
"मैम, चालीस!"
"साठ!"
"मैम, पैंसठ बहुत है!"
"बासठ!"
"मैम उनचास!"
"पचपन!"
सब नियंत्रण से बाहर हो चुके थे और अध्यापिका शान्ति रखने के लिए कह ही रही थी, कि एक और जवाब आया -
"पैंतीस!"

मेरे पाँव के नीचे से तो जैसे ज़मीन ही खिसक गयी. क्योंकि ये उत्तर देने वाली कोई और नहीं, मेरी बगल में बैठी मेरी सबसे प्रिय दोस्त थी. मैं उसे एक टक घूर रही थी. आखिर वो ऐसा कैसे कह सकती थी कि वह सिर्फ पैंतीस साल तक जीना चाहती है? नहीं, यह ज़रूर मज़ाक कर रही है, मैंने सोचा.
"क्या कहा तुमने?" अध्यापिका ने पूछा. "पैंतीस? केवल पैंतीस?"
"जी मैम," मेरी दोस्त ने जवाब दिया.
अध्यापिका ने एक गहरी सांस ली और बोली, "क्या तुम्हें पता है कि मेरी अपनी उम्र छत्तीस वर्ष की है?"
"मैम, लगती नहीं!" सबसे पीछे बैठे एक लड़के की आवाज़ आई.
"तुम चुप बैठो! किसीने तुम्हारी राय पूछी?" और अध्यापिका ने पलटकर मेरी दोस्त कि ओर देखा.
उसने कहा, "मैम, वैसे तो मुझे ये बात एक ज्योतिषी ने बताई थी कि मैं केवल पैंतीस साल ही जीऊँगी लेकिन मैं स्वयं भी इतनी आयु के ख़याल से खुश हूँ. और फिर इतिहास भी तो देखिए. हमारी इतिहास की पुस्तक छोटी उम्र में ही चल बसने वालों से भरी पड़ी हैं और उन्ही को हम आज याद करते हैं. महान कवि कीट्स से लेकर भगत सिंह तक! यानी उन्ही का जीवन सफल था - ज्यादा लम्बा जीने से आपका जीवन ज्यादा सार्थक हो जाएगा, ऐसा तो कोई ज़रूरी नहीं!"
मैं मन ही मन मुस्कुराई. मुझे अब विशवास हो गया था कि मेरी दोस्त केवल मज़ा लेने के लिए अध्यापिका के सामने उल्टे-सीधे तर्क झाड़ रही थी. पर मैं थोडी हैरान भी थी. एक तो उसका चेहरा बहुत ही गंभीर था और वो नाटक करती लग नहीं रही थी और दूसरा, ऐसी टाइमपास वाली हरकतें मैं तो कभी-कबार कर भी लेती थी, पर वह तो कभी नहीं करती थी.
मैं ये सब अभी सोच ही रही थी कि अध्यापिका जी ने पूरी कक्षा को समझाना शुरू कर दिया था. वे आइंस्टाइन, गाँधी, शेक्स्पीअर व डार्विन की जीवनियों से उदाहरण भी दे रही थी. वे कह रही थी कि केवल ज़िम्मेदारी के डर से छोटी उम्र की कामना करना बिलकुल बेवकूफी है. ऐसा बहुत कुछ कहा और अंत में यह कि अपनी जान-पहचान के किसी भी बुजुर्ग-से-बुजुर्ग व्यक्ति से पूछ लेना, कोई भी मरना नहीं चाहता है.
जब वे अपनी बात ख़त्म कर अगले प्रश्न की ओर बढ़ने लगीं, तो मैंने झट-से अपना हाथ खड़ा कर दिया. "हाँ बोलो!" अध्यापिका ने मेरी ओर देख कर कहा.
"मैम, बाकी सबका तो पता नहीं, पर मैं तेईस जनवरी दो हज़ार बयासी को मरना चाहती हूँ!" मैंने फटाक से कहा.
"हैं?!" अध्यापिका के मुंह से बस इतना ही निकला.
मैंने आगे बोला, "मैम, उस दिन मेरा सौवां जन्मदिन होगा. मैं अच्छे से चॉकलेट केक खाकर और सारे तोहफे देखकर ख़ुशी-ख़ुशी उस दिन मर जाऊँगी."
पूरी कक्षा में सबकी ठहाकेदार हंसी गूँज उठी. सबसे पीछे बैठे उस लड़के ने "हैप्पी बर्डे टू यू, दादी अम्मा" गाना शुरू कर दिया और कई बच्चे उसके साथ गाने लग पड़े. अध्यापिका जी उन्हें शांत करवा ही रही थी कि अगले पीरिअड की घंटी बज गयी. उन्होंने मेज़ से अपना बैग उठाया लेकिन सीधा बाहर जाने कि बजाए मेरी ओर आने लगी. मैं घबरा गई, "आज तो खूब सुनना पड़ेगा. बस प्रिंसिपल के पास न ले जाएँ."
लेकिन उन्होंने केवल हल्का सा मुस्कुरा कर एक बार मेरा सर थप-थपाया और पलट कर बाहर चली गयीं. मैंने उस समय तो राहत कि सांस ले ली पर उसके एक-दो हफ्ते बाद तक सब ने मुझे कई रंगीन नामों से बुलाया - ग्रैनी, दादी अम्मा, बूढी घोड़ी, रयूमैटिक्स, भटकती आत्मा, वगैरा वगैरा. खैर, मैं भी ईंट का जवाब पत्थर से देती थी.

आज, मुझे उन अध्यापिका जी का न तो नाम ही याद है और न चेहरा. मैं उन्हें कभी नहीं बता पाऊँगी कि उनके उस प्रश्न ने कितनी गहरी छाप छोड़ी. वो प्रश्न और उससे जुड़े हुए कई और प्रश्न मुझे आज भी सताते हैं.


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कितने वर्ष जीना चाहोगे? - 1

अरविन्द जी ने "लॉन्ग लिव" का आशीर्वाद दिया तो अचानक स्कूल के दिनों से एक किस्सा याद आ गया. बात उस ज़माने की है (हा हा) जब मैं नवी कक्षा में थी. एक पीरिअड खाली था जिसे हम "अरेंजमेंट" पीरिअड कहते थे और एक जीवविज्ञान की अध्यापिका कक्षा में शांति बनाए रखने के लिए आयीं. वे छात्रों से हल्की-फुल्की बातचीत करने लगी पर मेरा ध्यान डेस्क के नीचे रखे चिप्स खाने में (जो की आगे बैठे लड़के ने सिर्फ दो मिनट के लिए दिए थे और उसके बाद मुझे आगे पास करने थे) और आर्चीज़ कॉमिक को जल्दी-जल्दी पढने में था (जो मेरे पीछे बैठी दोस्त की थी और सिर्फ उस पीरिअड की उधारी थी). जल्दी-जल्दी इसलिए भी क्योंकि मेरी बगल में बैठी दोस्त भी साथ-साथ पढ़ रही थी और वो मुझसे थोडी तेज़ रफ़्तार से पढ़ती थी और पेज पलटने की जल्दी में थी. तात्पर्य यह कि मैं अत्यधिक व्यस्त थी और मेरे पास किसी अध्यापिका की बेकार की गप्पें सुनने का समय तो बिलकुल भी नहीं था.

मैं इसी प्रकार अपना काम ध्यानपूर्वक और पूरी निष्ठा के साथ कर रही थी जब न चाहते हुए भी एक आवाज़ कान में पड़ ही गयी, "येस यू ! द गर्ल विद स्पेक्स !" मैंने सर ऊपर उठाकर देखा. मेरा पारा चढ़ चुका था. चश्मे वाली लड़की - आखिर ये कोनसा तरीका हुआ किसी को संबोधित करने का? मैंने अध्यापिका को आँखों में आँखें डाल कर देखा. खड़े होने की ज़हमत भी नहीं उठाई. "तुम क्या कर रही हो?" अध्यापिका ने पूछा. "पढ़ रही हूँ," मैंने सीधा जवाब दिया और जानबूझकर, अंत में "मैम" नहीं लगाया. अध्यापिका का माथा ठनका. मेरे बगल में बैठी दोस्त मुझे फिक्रमंद आँखों से घूर रही थी और पाँव मार कर खड़े होने का इशारा भी कर रही थी पर मैं टस से मस नहीं हुई. बाकी पूरी कक्षा मजेदार तमाशे के ताक में ऐसी चुप हुई के मानो सबने सांस भी लेना बंद कर दिया हो.
उनकी इच्छा पर ठंडा पानी फेंकते हुए अध्यापिका ने शांत स्वर में कहा, "वो तो मैंने भी देखा. मैं यह पूछ रही थी कि क्या पढ़ रही हो. खैर, कुछ अहम बातों के बारे में सबका मत जानने के लिए मैं कक्षा के समक्ष एक प्रश्नावली रख रही हूँ; अगर तुम चाहो, तो थोडी देर पढने की बजाय इसमें सबके साथ हिस्सा लो." और मेरे जवाब का इंतज़ार किए बगैर उन्होंने कक्षा को बताना शुरू कर दिया कि वे किस प्रकार की प्रश्नावली की बात कर रही थी और सब छात्र-छात्राओं को क्या करना था. मैंने अड़ियलपन में एक बार फिर कॉमिक की ओर ध्यान केन्द्रित किया पर मेरी दोस्त अब अध्यापिका की बात सुन रही थी. मन में उसे "डरपोक दगाबाज़" कहा और अकेले ही पढने लगी. अब तो पूरी किताब मेरे कब्जे में थी, उसे मेज़ के बीचों-बीच रखने के भी ज़रुरत नहीं थी. फिर भी मैं पहले की तरह नहीं पढ़ पा रही थी - लाख कोशिश करने पर भी मेरा ध्यान बार-बार अध्यापिका के सवाल और बच्चों के जवाब सुनने की ओर आकर्षित हो रहा था.
इसी कश-म-कश के चलते एक सवाल कानों से होकर मस्तिष्क तक पहुँच ही गया (जबकि सब कुछ अनसुना करने का मेरा प्रयत्न पूरे जोरों पर था). यह था वो सवाल जिसने मेरी आर्चीज़ कॉमिक पढने की घोर तपस्या भंग कर दी, "अगर तुम चुन सको, तो कितने वर्ष जीना चाहोगे?" (अंग्रेजी में कुछ ऐसा था- "इफ यू हैड द चॉएस, हाओ लॉन्ग वुड यू लाइक टु लिव फॉर?")
आखिर मैंने हार मान ही ली. किताब बंद कर पीछे पकड़ा दी. दायीं कोहनी को मेज़ पर और ठुड्डी को हाथ पर टिकाया, और सबके जवाब सुनने के लिए चौकन्नी होकर बैठ गयी. तब एक लड़के ने कहा, "मैम, साठ."
"यानी अब से साठ वर्ष और? कुल मिला कर तेहत्तर-पचहत्तर?" अध्यापिका जी ने पूछा.
"नहीं, नहीं, मैम! साठ वर्ष की उम्र काफी है," उस लड़के ने जवाब दिया.
अध्यापिका के चेहरे पर आश्चर्य और परेशानी दोनों साफ़ झलक रहे थे. मैं भी हैरान थी. "ये उल्लू बोल क्या रहा है?" - मैंने सोचा. एक या दो को छोड़कर, अपनी कक्षा के लड़कों की मानसिक क्षमता के बारे में मेरी कुछ ख़ास अच्छी राय तो वैसे भी नहीं थी. पर यह तो नई नीचाइयों को छु रहा था.
जब और किसी ने कोई जवाब नहीं दिया तो अध्यापिका ने उसी लड़के से थोड़े हलके स्वर में प्यार से पूछा, "बेटा, क्या तुम्हारे दादा-दादी व नाना-नानी नहीं हैं?" लड़के ने झट जवाब दिया, "बिलकुल हैं, मैम. इसीलिए तो कह रहा हूँ. उनका जीना भी क्या जीना है! मैं कभी वैसा बुड्ढा नहीं बनना चाहता."
कक्षा में एकदम से शोर-सा फ़ैल गया जैसा कि तीस-पैंतीस बच्चों के एकसाथ फुसफुसाकर बातचीत करने से पैदा होता है. अब सब आपस में उसकी बात पर चर्चा कर रहे थे. किन्तु अध्यापिका ने सबको शांत करवाते हुए, काफी ऊंचे स्वर में उस लड़के से कहा, "क्या तुम्हे बिलकुल शर्म नहीं आती? अपने घर के बुजुर्गों के बारे में ऐसा कह रह हो? वे तुम्हे कितना प्यार करते होंगे और तुम्हे उनका जीवित रहना इतना खलता है?"


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बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

आखिर कितने हैं ब्लॉग एग्रीगेटर?


मैंने हाल ही में ब्लॉग शुरू किया है और एक सप्ताह पूर्व तक तो मैं ब्लॉग एग्रीगेटर का मतलब भी नहीं जानती थी। अब यह नौबत आ गयी है कि पांच एग्रीगेटरों में पंजीकरण करवा चुकी हूँ जबकी ब्लॉग पर दिखाने को भी मुश्किल से पांच ही पोस्ट हैं! वैसे याद करुँ तो मेरा ब्लॉग लिखने का कारण था स्वान्तः सुखाय: -- केवल हिंदी भाषा से जुड़े रहने के लिए शुरू किया था चिट्ठा; न की फौलोअर, समर्थक या प्रशंसक पाने के लिए। तो फिर ये एग्रीगेटरों से जुड़ने की लत कैसे और क्यों लगी?



अब तो ब्लॉग जगत के नए-पुराने खिलाड़ियों से यही विनम्र अनुरोध है कि कृपया बता दें कि आखिर कितने ब्लॉग एग्रीगेटर हैं हिंदी चिट्ठों के लिए? इन्टरनेट की दुनिया बहुत विशाल है और सर्च इंजन प्रयोग करने पर भी बहुत सी जानकारी छूट जाती है, इसलिए मदद मांग रही हूँ। अब या तो ये गुहार सुन लीजिए या इस लत से छुटकारा पाने का कोई उपाय बता डालिए।

(मैंने अपने लिए ब्लॉग लिखने के कुछ नियम बनाए थे जिनके अनुसार कोई भी पोस्ट दस वाक्यों से कम की नहीं होनी चाहिए। पर यहाँ तो केवल एक छोटा सा प्रश्न पूछना था जो की दरअसल शीर्षक में ही पूछ लिया था। तो दस वाक्य नहीं, यहाँ तो तीन शब्दों में ही काम चल सकता था। अरविन्द जी ने सिखाया कि तुलसीजी ने सुझाया था कि "अर्थ अमित अति आखर थोड़े" पर यहाँ उसका बिलकुल विपरीत है।)



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मंगलवार, 24 फ़रवरी 2009

प्रभाव



किस पर किस का कितना
कब हो जाए, यह कहना
है नामुमकिन सपना

कोई मुलाक़ात, इक बात
न जाने कब किसके साथ
बन जाएँ कैसे हालात --

पुस्तक, चित्र या फिर आइना
बदल के रख दे हर माइना
समझ तो इसको मैं पाई न

कभी-कबार धुंधला एहसास
धीरे से होता आभास
बंधा जाता जीने में आस

प्रश्न चिह्न पर बहुत बड़ा
क्यों सब पे इक-सा न पड़ा?
अपनों को क्यों दिया लड़ा?


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बदले की भावना


मेरे मूल्यांकन में बदले की भावना किसी भी मनुष्य के चरित्र के लिए सबसे अधिक हानीकारक भावनाओं में से एक है। यह वो है जो आपको अन्दर ही अन्दर खाए चली जाती है और आपको बिल्कुल खोकला कर डालती है। ग्यारह या बारह वर्ष की उम्र में अपने पाठ्यक्रम की एक किताब ने मुझे बहुत प्रभावित किया था। किताब में थी ऐलेक्सैन्दर ड्युमास की काउंट ऑफ़ मोंटे क्रिस्टो की संक्षिप्त कहानी। अपने धोखेबाज दोस्तों की साजिश का शिकार इस गाथा का नायक ग़लत इल्जाम में उम्रकैद की सज़ा काटते हुए कई साल कारावास में व्यतीत करता है। वो किस तरह आखिरकार फरार होने में कामयाब होता है और एक नयी पहचान बनाकर फ़िर से सभ्य समाज में अपनी जगह बनाता है - इन वाक्यात का विवरण बहुत ही रोमांचक और प्रभावी है।

ख़ास तौर पर एक बच्चे की प्रचुर कल्पना के लिए तो अत्यधिक रोचक और मंत्र-मुग्ध कर देने वाली कहानी है यह। मजेदार षडयंत्र, खूब सारा जोखिम और उलझी हुई गुथ्थियों से भी भरपूर कहानी है यह।

परन्तु ये सब कारण नही थे इस कहानी के मुझ पर इतना गहरा प्रभाव छोड़ने के। सच तो यह की इस पेचीदा कथा के कारण मुझे शायद पहली बार एहसास हुआ की सही या ग़लत का फ़ैसला करना शायद मानवीय क्षमता के परे है। गुनहकारों को सज़ा देने और अच्छे लोगों व निजी मित्रों को ईनाम देने की शक्ती अगर किसी इंसान को मिल भी जाए तो वह सुकून की गारंटी नही है। नायक डान्टेज़ इतनी खूबसूरती से सफलतापूर्वक अपने सब दुश्मनों से एक-एक करके बदला लेने और अपने पुराने मित्रों की सहायता करने के बावजूद भी खुशी हासिल नही कर पाता। सब कुछ प्लान के मुताबिक होने पर भी और हर ऐशो-आराम का लुत्फ़ उठाने के बाद भी उसका मन अशांत रहता है। कैद किए जाने के पूर्व डांटेज की मंगेतर मर्सिडीज़ के साथ तो डांटेज के बदले के चलते सबसे बुरा होता है. उसके पति से तो डांटेज बदला ले लेता है लेकिन उस औरत का संसार पूरी तरह से बिखर जाता है जबकी उसने तो कोई पाप नही किया था. बस वो अपने जवान बेटे के लिए डांटेज से जीवनदान अवश्य मांग लेती है और उसी बेटे की खुशहाली के लिए भगवान् से दुआ मांगने के अलावा उसके अपने जीवन में और कुछ शेष नही बचता. डांटेज को भी इस बात का एहसास हो जाता है कि बदला लेते समय कई मासूम लोग आटे के साथ घुन की भाँती पिस जाते हैं. अंत में डांटेज को भी तभी खुशी मिलती है जब उसे एक खूबसूरत मासूम लड़की का प्यार मिल जाता है. (पुरूष प्रधान समाज में वह तो अपने से आधी उम्र की लड़की से शादी कर सकता है लेकिन "कलंकित" मर्सिडीज़ के लिए तो ऎसी कोई आशा नही है.)

न जाने क्यों बदला लेने को मानव समाज में - और ख़ास तौर पर आधुनिक भारतीय समाज में - संवेदना की दृष्टि से देखा जाता है. अगर फिल्मों की मान कर चलें तो बदला लेना न्याय और शूरवीरता का प्रतीक है. परन्तु ऐसा नही है. अगर हर व्यक्ती किसी-न-किसी "अपराध" का बदला लेने निकल पड़ेगा तो अराजकता एवं गुंडाराज फ़ैल जाएंगे. आख़िर हममे से ऐसा कौन है जिसके साथ कभी न कभी किसी प्रकार का अन्याय या धोखा न हुआ हो? हाँ, ये सच है की सभ्य समाज के नियमों, शिष्टाचार के बंधनों और जिंदगी की दौड़-धुप में समय की कमी के चलते आम लोग बदला लेने नही निकलते. कुछ प्रतिशत सज्जन जीव मन में भी आक्रोष या कड़वाहट नही रखते. अधिकाँश लोग मन ही मन कुढ़ते रहते हैं; अपने नजदीकी मित्रों या सगे-सम्बन्धियों से अपना दुःख बाँट कर मन हल्का करने के बाद भी मन में कड़वाहट जिंदा रखते हैं. मजबूरी वाली परिस्थितियों में चेहरे पर दिखावे कि मुस्कराहट लाने में भी कामयाब हो जाते हैं. बुद्धिजीवी तुच्छ तरीकों से तुच्छतम बातों के बदले ले लिया करते हैं. (उदाहरण के लिए अध्यापकगण कांफ्रेंसों और सम्मेलनों में अपने "दुश्मनों" की बात काटकर और उन्हें नीचा दिखाकर मन को तसल्ली दे लेते हैं.)

पर मेरे मन में यह बात कहीं ज्यादा संजीदा है. हमारे देश में और दुनिया के तकरीबन सभी देशों में क़ानून की किताब में भी एक प्रावधान है "प्रोवोकेशन" का - यानी अगर आपको उकसाया जाय तो आपको खून करने की भी सज़ा कम मिलेगी या कुछ हालात में तो पूरी माफ़ी तक मिल सकती है. मैं इसके बिल्कुल ख़िलाफ़ हूँ. क्या मात्र उकसाया जाना बदला लेने के लिए काफ़ी है? यानी दुनिया भर में बदला लेने के प्रति संवेदना है. मैं तो कहूंगी की चाहे कितना भी बड़ा जुर्म हो, बदला उससे भी बड़ा जुर्म है. इससे न तो किसी को इन्साफ मिलता है और न ही समाज सुधार होता है. अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ उठायें, विरोध करें लेकिन अगर विफल रहें तो हम इन्साफ बांटने की तलवार अपने हाथ में न उठाएं. इस बात से ही मन को संतुष्ट कर लें की हमने कोशिश की थी, बाकी हमारे बस में नही.
जानती हूँ कि यह कहना आसान है, करना बहुत जटिल. परन्तु चिंता का विषय तो यह है कि हम बदले को कोई बहुत बुरी चीज़ समझते ही नही. लेकिन सत्य यही है की बदला लेना ग़लत है, अपने अप्प में एक अपराध है. अगर हम इस बात को केवल सच्चे मन से स्वीकार कर लें और हृदयंगम कर लें, तो ये आत्मविकास लिए सही दिशा में एक बहुत बड़ा कदम होगा. और धीरे-धीरे बदले कि भावना को अपराध मानना समाज कि वास्तविकता भी बन जायेगी.


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सोमवार, 16 फ़रवरी 2009

ब्लॉग लिखने के कुछ नियम


ये ब्लॉग न तो दुनिया को कोई संदेश देने के लिए है और न ही अपनी लेखनी की उदात्तता दर्शाने के लिए बल्कि इसका एक सहज सा उद्देश्य है - मेरे द्वारा हिन्दी भाषा का प्रयोग। तो किस विषय पर लिखा जाय यह तय करना थोड़ा कठिन है। उचित यही होगा की कुछ नियम बना लिए जाएँ जिससे की लिखना बरकरार रहे। अभी जो नियम सोच पायी हूँ, वे हैं:
१) हर पोस्ट में कम से कम दस वाक्य होने चाहिए।

२) पिछली पोस्ट में लिखे गए किसी शब्द या विचार को अगली पोस्ट का विषय बनाओ। उदाहरण के लिए अपनी सबसे पहली पोस्ट में मैंने कहा की कुछ न करने से थोड़ा ही करना अच्छा है और फिर अगली पोस्ट में Slumdog Millionaire की चर्चा की जिसकी सब तो नही लेकिन कुछ बातें अच्छी लगी। इसी प्रकार अब अगली पोस्ट में Slumdog वाली पोस्ट में से कोई विचार उठाना है। यह कुछ-कुछ अन्ताक्षरी के खेल जैसा है; बस आखरी अक्षर से शुरुआत करने की आवश्यकता नही है।
३) हर नई पोस्ट में पिछली पोस्टों से जो नए शब्द सीखने को मिले, उनका प्रयोग करने की चेष्टा अवश्य करनी है।
४) जबरन कठिन शब्द नही घुसाने कि अगले दिन स्वयं को ही मतलब समझ न आए!
५) ज्यादा अच्छा करने कीकोशिश में सोचने में वक्त बरबाद नही करना।


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इस ब्लॉग के बारे में...

इस ब्लॉग के ज़रिये मैं अपनी हिंदी में सुधार लाना चाहती हूँ. आपसे अनुरोध है की अगर आपको मेरी भाषा, वर्तनी, व्याकरण, अभिव्यक्ति इत्यादि में कोई भी त्रुटि नज़र आए, तो मुझे अवश्य बताएँ और मेरा मार्गदर्शन करें. यहाँ पधारने का धन्यवाद!

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